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________________ जैन धर्म में अहिंसा इस प्रकार विष्णुपुराण ने हिंसा को सभी पातकों को जड़ तथा अहिंसा को विष्ण को संतुष्ट करने यानी मुक्ति पाने का बड़ा साधन कहा है तथा यज्ञों में अन्न के प्रयोग को धर्मोचित बताया है। लेकिन इसका यह तर्क कि विष्ण सर्वव्यापक हैं और हिंसा करने वाला उन्हीं की हिंसा करता है, अतः हिंसा गलत है, उतना ठीक नहीं मालम पड़ता । क्योकि यदि मारे जाने वाले जीव में विष्ण का निवास है तो हिंसक में क्या विष्णु निवास नहीं करते ? इसलिए जहाँ तक विष्ण की व्यापकता की बात है, मारनेवाला और मरनेवाला दोनों ही विष्णु के रूप हैं। अतएव हिंसा-अहिंसा का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। अग्निपराण-इसमें अहिंसा एवं अन्य नैतिक व्रतों की फलदायिनी व्यापकता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये मुक्ति एवं भुक्ति दोनों के ही देनेवाले हैं। शान्तिपर्व की तरह इसमें भी अहिंसा की तुलना हाथी के पदचिह्न से की गई है तथा कहा गया है कि शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय, ईश्वर-पूजन, प्राणियों को कष्ट न देना आदि अहिंसा के ही विभिन्न रूप है। इसके विपरीत उद्वेगजनन, संताप देनेवाला रुदन, पिशुनता, हित का निषेध, दिल को दुःखित करनेवाली बात, सुख का अभाव, संरोध और वध ये सभी हिंसा के रूप हैं।' १. चित्तवृत्तिनिरोधश्च जीवब्रह्मात्मनो: पर। अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रही ॥२॥ यमाः पञ्च स्मृता विप्र नियमाभुक्तिमुक्तिदाः। शौचं संतोषतपसी स्वाध्यायेश्वरपूजने ।।३।। भूतपीडा ह्यहिंसा स्याहिंसा धर्म उत्तमः ।। यथा गजपदेऽन्यानि पदानि पथगामिनाम् ।।४।। एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमभिधीयते । उद्वेगजननं हिंसा सन्तापकरणं तथा ॥५॥ रुक्कृतिः शोणितकृति: पैशून्यकरणं तथा। हितायातिनिषेधश्च मर्मोद्धाटनमेव च ॥६॥ सुखापह नुतिः संरोधो वधो दशविधा च सा। यद्भूतहितमत्यन्तं वचः सत्यस्य लक्षणाम् ॥७॥ अग्निपुराण, अ० ३७२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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