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जैन धर्म में अहिंसा प्राप्त है। जैकोबी ने इसका रचना-काल ई० पूर्व आठवीं शती से ई० पूर्व पांचवीं शती के बीच माना है।' रामायणकाल में वर्ण एवं आश्रम धर्मों की धाक जमी हई थी तथा वेद-प्रतिपादित धार्मिक नियमों का अनुगमन होता था। आचार को धर्म का अभिन्न अंग मानते हुए उस पर अधिक बल दिया जा रहा था । अहिंसा, सत्य, आत्म-संयम, दया, सहिष्णुता, क्षमा, आतिथ्य, शत्रुओं की भी सहायता करना यदि उन्हें आवश्यकता आ पड़े, एवं मन, वचन और कर्म की शुद्धि रामायण में आचार के प्रधान अंग माने हैं। इतना ही नहीं बल्कि राजनीतिक नियमों पर विचार करते हुए __ 1. "Discussing the age of the Ramayana, he comes to the
conclusion that it must have originated before the fifth or probably in the sixth or the eighth pre-Christian century". History of Philosophy: Eastern and Western, (Ed. Sarvepalli Radhakrishnan), Vol. I, p. 75. मानूशंस्यमनुक्रोशः श्रुतं शीलं दमः शमः। राघवं शोभयन्त्येते षङ्गणा: पुरुषर्षभम् ।।१२।। वा० रा० २.३३.१२ सत्यं सधर्म च पराक्रमं च भूतानुकम्पां प्रियवादितां च । द्विजातिदेवातिथिपूजनं च पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः ॥३१॥
___ वा० रा० २.१०६.३१. पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि वा। कार्यं कारुण्यमार्गेण न कश्चिन्नापराध्यति ॥४३।। लोकहिंसाविहाराणां क्रूराणां पापकर्मणाम् । कुर्वतामपि पापानि नैव कार्यमशोभनम् ॥४४॥
वा० रा० ६. ११३. ४३-४, बद्धांजलिपुटं दीनं याचन्तं शरणागतम् ।। न हन्यादानशंस्यार्थमपि शत्रु परंतप ॥२७॥ मार्तो वा यदि वा हप्तः परेषां शरणं गतः । परिः प्राणान्परित्यज्य रक्षितव्यः कृतात्मना ।।२८।।
वा० रा० ६. १८. २७-२८. कायेन कुरुते पापं मनसा संप्रघार्य तत् । अनुतं जिह नया चाह त्रिविधं कर्म पातकम् ।।२१।। वा० रा० २.१०६. २१.
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