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उपसंहार -
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हैं, वे सभी हिंसा होती हैं तथा स्वार्थत्याग, असंयमित भोगप्रवृत्ति का त्याग और जनकल्याण के निमित्त किए गए सभी कार्य अहिंसा के रूप होते हैं। यह सिर्फ मनुष्य जाति के लिए ही नहीं बल्कि प्राणिमात्र के लिए अनुगम्य है। यह भावप्रधान होती है, इसलिए अधिक प्राणियों के हित के लिए कम प्राणियों की हिंसा अथवा उसी प्राणी को बड़े दुःख से मुक्त करने के लिए किसी प्राणी को कुछ कष्ट पहुंचाना हिंसा नहीं समझी जानी चाहिए। इसी विचार से गांधीजी ने साठ कुत्तों (जिनमें से एक पागल था और अन्य सभी को उसने काट खाया था ) को मरवा देनेवाले व्यक्ति को भी निर्दोष कहा है।
अहिंसा मानसिक स्थिति होती है और यह क्षत्रिय का गुण है अर्थात् कायर इसे नहीं अपना सकता; इसे अंधप्रेम भी नहीं समझा जा सकता । यह रूढ़िवाद तथा उपयोगितावाद से भिन्न है। दया और दान अहिंसा का ही रूप है। किन्तु दान उसी व्यक्ति को देना उचित होता है जो अपंग और अपाहिज हो वरना समाज में आलस्य और निष्क्रियता का राज्य हो जाता है।
अहिंसा ही सत्य वस्तु है। इसका संबंध ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रहादि से भी अटूट है। यज्ञ में भी इसका स्थान है। यद्यपि वैदिक नियमानुसार यज्ञ में होनेवाली हिंसा को कर्मकाण्डी लोगों ने हिंसा नहीं माना है। किन्तु गांधीजी के अनुसार यह पूर्ण सत्य नहीं है। भले ही वह यज्ञ में हो अथवा कहीं और । यज्ञ में की गई हिंसा अनिवार्य हिंसा कह दी गई है लेकिन अनिवार्य हिंसा की तो कोई निश्चित परिभाषा नहीं होती। खेती में की जानेवाली हिंसा भी अनिवार्य हिंसा के अन्तर्गत ही आती है। __ अहिंसा का आर्थिक रूप खादी तथा स्वदेशी माल के प्रयोग में दिखाया गया है । अछूतोद्धार तथा जात-पात-उन्मूलन इसका सामाजिक रूप है। अहिंसा का राजनीतिक रूप सत्याग्रह तथा असहयोग आंदोलन के रूप में व्यक्त हुआ है।
वैदिक, बौद्ध, सिक्ख आदि जेनेतर एवं जैन परम्पराएं तथा गांधीवाद इस बात से सहमत हैं कि राग-द्वेष के वशीभूत होकर किसी भी
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