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________________ उपसंहार २६७ परम संयम, परम दान, परम फल, परम ज्ञान, परम मित्र एवं परम सुख है। यह इतनी महान है कि इससे प्राप्त सूयश सौ वर्षों में भी वर्णित नहीं हो सकता। गीता में श्रीकृष्ण ने ज्ञान भक्ति और कर्म के सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते हुए अहिंसा के सिद्धान्त को बहुत बड़ी आन्तरिक शक्ति प्रदान को है, जिसकी जानकारी एक विशेष विचार-विमर्श से होती है। इनके अनुसार जो ज्ञानी है, पण्डित है, वह बड़े-छोटे सभी जीवों को समान देखता है। वह अपने आप में अन्य जोवों को और अन्य जीवों में अपने को देखता है। ऐसा करने से वह सदा हिंसा करने से बचता है, क्योंकि वह रागद्वेष का शिकार नहीं होता है। एक भक्त के लिए उन्होंने उपदेश दिया है कि वह अपने कर्तापन को ध्यान में न लाये, जैसा कि अर्जुन को समझाते हुए उन्होंने कहा है कि इस संसार को जन्म देनेवाला, पालनेवाला तथा संहार करनेवाला मैं स्वयं हूँ। युद्धक्षेत्र में जितने भी लोग खड़े हैं, उन्हें मैं मार चुका हूँ, तुम्हें उन्हें मारने में एक निमित्तमात्र बनना है। पार्म के सिद्धान्त को व्यक्त करते हुए श्रीकृष्ण ने कहा है कि आदमो की प्रकृति हो ऐसो है कि वह एक क्षण भी कुछ किये बिना नहीं रह सकता। किन्तु कार्य करने में उसे अपने मन में फल की कामना नहीं करनी चाहिए। “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" अर्थात् कर्ता का अधिकार कर्म पर होता है, उसके फल पर नहीं। जब फल के प्रति व्यक्ति को राग या मोह नहीं होगा तो निश्चित ही वह द्वेष से दूर रहेगा, और राग तथा द्वेष के अभाव में वह हिंसा करने से वंचित होगा। किन्तु एक सच्चा ज्ञानयोगी या भक्त या कर्मयोगी बनना कोई आसान बात नहीं। इसके लिए कठिन तपस्या एवं त्याग की आवश्यकता होती है। तप के विभिन्न रूप होते हैं, जिनमें अहिंसा भी एक है। इसके अलावा श्रीकृष्ण ने ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, ज्ञानयज्ञ, द्रव्ययज्ञ तथा तपयज्ञ पर बल दिया है, जिनमें वैदिक यज्ञों की तरह पशु-बलि की आवश्यकता नहीं होती। ___महाभारत की तरह पुराणों में भी अहिंसा पूर्ण प्रकाशित हुई है वायुपुराण में मन, वाणी एवं कर्म से अहिंसा का पालन करने का उपदेश दिया गया है। अन्य ग्रन्थों से भिन्न इसमें उस भिक्ष को भी हिंसा करने का दोषी ठहराया गया है, जिसके द्वारा अनिच्छा से या अनजाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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