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________________ २६६ जैन धर्म में अहिंसा इसमें आत्म-रक्षा पर ध्यान देते हुए इतनी छूट अवश्य दी गई है कि अपने पर आघात करनेवाले पर कोई व्यक्ति घात कर सकता है, अर्थात् आत्म-रक्षा के लिए हिंसा करना दोषजनक नहीं समझा जाना चाहिए । 1 महाभारत में अहिंसा का सिद्धान्त पूर्ण विकसित हुआ है । यद्यपि शान्तिपर्व के शुरू में ही अर्जुन ने युधिष्ठिर को राजधर्मं का उपदेश देते हुए हिंसा को अत्याज्य बताया है किन्तु अर्जुन का वक्तव्य सिर्फ राजा और क्षत्रिय के कर्तव्यों से संबंधित है । ये अपने धर्म या कर्तव्य का सही-सही पालन करने के लिए हिंसा का त्याग नहीं कर सकते । कारण, राजा को अपने राज्य की रक्षा करनी पड़ती है तथा किसान को खेती के लिए हल जोतना आदि ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिनमें अनेक प्राणियों का नाश होता है । व्यास के शब्दों में समता का सिद्धान्त प्रतिपादित होता है, जो अहिंसा का ही रूप है । मन, वाणी तथा क्रिया से जो अन्य जोवों को कष्ट नहीं पहुंचाता उसे अन्य प्राणी भी दुःख नहीं देते, फिर हिंसा होगी कैसे । अहिंसा की महानता को दर्शाते हुए शान्तिपर्व में इसकी तुलना हाथी के पदचिह्नों से की गई है। कारण, यह अन्य धर्मों को अपने में ठीक उसी प्रकार समावेशित कर लेती है जैसे हाथी के पदचिह्नों के भीतर अन्य पथगामियों के पदचिह्न आ जाते हैं | अहिंसा और मांस भक्षण की समस्या का समाधान देते हुए महाभारत में विश्वामित्र और चाण्डाल का उदाहरण देकर यह निर्णय दिया गया है कि आदमी उस समय मांस ग्रहण कर सकता है जिस समय वह प्राण संकट में पड़ा हो । प्राण की रक्षा किसी भी मूल्य पर की जानी चाहिए, क्योंकि जीवित रहने पर ही कोई धार्मिक कार्य किया जा सकता है | अहिंसा तथा वैदिक यज्ञ की समस्या को सुलझाते हुए इसमें राजा विचक्षणु तथा नारद के शब्दों में यज्ञ में दी गई पशुबलि की बहुत ही भर्त्सना की गई है। इसके अलावा, इस उलझन की मुख्य गांठ "अज" शब्द के अर्थ को भी शान्तिपर्व में स्पष्ट किया गया है । इसके अनुसार "अज" शब्द का अर्थ "अन्न " होता है । अतः जो लोग यज्ञ में अन्न की हवि न देकर पशुबलि करते हैं, वे घोर अपराध करते हैं । अनुशासनपर्व में अहिंसा को अन्य धर्मों का स्रोत या उद्गमस्थान बताया गया है। क्योंकि यह परम धर्म, परम तप, परम सत्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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