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________________ जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा साथी जो कि पड़ोसी है अथवा किसी अज्ञात व्यक्ति के प्रति कोई घात किया हो तो हमारे अपराधों का नाश करो । ' आगे कहा है "पुमान् पुमांसं परि पातु विश्वतः " ( ऋ० वे० ६. ७५. १४ ) मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह एक-दूसरे की रक्षा करे । यजुर्वेद में देखा जाता है "मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।।” ३६.१८ अर्थात् मैं सभी प्राणियों को मित्रवत् देखूँ । आपस में सभी एक दूसरे को मित्र के समान देखें । इसी तरह अथर्ववेद में कहा है "तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः " (अ०वे० ३. ३०. ४) अर्थात् हम सभी एक साथ ऐसी प्रार्थना करें जिससे कि आपस में सुमति और सद्भाव का प्रसार हो । फिर एक उक्ति मिलती है "यांश्च पश्यामि यांश्च न तेषु मा सुमतिं कृधि" ( अ०वे० १७. १.७ ) भगवन् ! आपकी कृपा से मैं सभी मनुष्यों के प्रति, चाहे में उनसे परिचित होऊँ अथवा नहीं, सद्भाव रखू ं । इतना ही नहीं, बल्कि विश्व शान्ति के भाव पर बल देते हुए कहा गया है कि सूर्य की किरणें हम सभी के लिए ( मनुष्यमात्र के लिए ) शान्ति प्रदान करने वाली हों और सभी दिशाएं भी शान्तिदायिनी हों । २ और यजुर्वेद में तो शान्ति की भावना के विस्तार की कामना पृथ्वी लोक से लेकर द्युलोक और अन्तरिक्ष लोक तक १. अर्यभ्यं वरुण मित्र्यं वा सखायं वा सद्भिद् भ्रातरं वा । वेशं वा नित्यं वरुणारणं वा यत् सोमागश्चक्रमा शिश्रथस्तत् ॥ ऋ० वे० ५. ८५. ७. २. शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्त्रः प्रदिशो भवन्तु । ऋ ० ० ७ ३५. ७, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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