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जैन धर्म में अहिंसा ___ आगे कहा है-"यज्ञ के जो पांच (धान्य, सोम, पशु, पुरोडास और घृत) उपकरण हैं, यथायोग्य उनको मैं रखता हूँ।"१ यद्यपि मंत्र में उपकरणों के नाम स्पष्टतः नहीं दिए गए हैं लेकिन टीकाकारों ने नामों को भी प्रकाशित किया है और उनमें पशु भी एक उपकरण है जिसकी आवश्यकता यज्ञ में होती है। इससे भी आगे 'यूप' की चर्चा मिलती है जिसमें यज्ञ के पशु बांधे जाते हैं। इनसे यह जाहिर होता है कि यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती थी। फिर भी वेदों में कुछ ऐसे स्थल मिलते हैं जहाँ पर स्पष्ट या गौण रूप से अहिंसा के सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है जैसे
"हम अभी गमन ( संगति ) प्राप्त करें। मित्रभूत अथवा मित्र द्वारा दर्शित मार्ग से हम गमन करें। अहिंसक मित्र का प्रिय सुख हमें गृह में प्राप्त हो।" __इस कथन में सुख, अहिंसा, मित्र तथा मार्ग शब्द संबंधित-से दीखते हैं-गृह में सुख की प्राप्ति हो ; सुख जो मित्र के द्वारा अथवा उसके सहवास से प्राप्त हो; मित्र जो अहिंसक है; तथा मित्र द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर प्रस्थान करें। अर्थात् अहिंसा एक ऐसी वस्तु है जो हितकारी या सुख देने वाली है और इसका संबंध मित्र से ही हो सकता है, शत्रु से नहीं। जिसके प्रति मन में शत्रुता का भाव होगा उसके प्रति अहिंसा का व्यवहार करना या अहिंसा का भाव रखना असंभव है। पुन: ऋग्वेद में कहा है कि हे वरुण ! यदि हम लोगों ने उस व्यक्ति के प्रति अपराध किया हो जो हम लोगों को प्यार करता है, यदि कोई गलती अपने मित्र या १. पञ्च पदानि रूपो अन्वरोहं चतुष्पदीमन्वेमिञ्चव्रतेन । अक्षरेण प्रतिमिम एतामृतस्य नाभावधि सं पुनामि ॥३॥
ऋ० वे० १०.१३. ३. २. उपावसृज त्मन्या समञ्जन् देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि। वनस्पतिः शमिता देवो अग्निःस्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन ॥१०॥
ऋ० वे० १०. ११०. १०. ३. यन्नूनमश्यां गीतं मित्रस्य यायां पथा।।
अस्य प्रियम्प शर्मव्यहिसानस्य सश्चिरे ॥ ऋ० वे० ५. ६४. ३. हिन्दी ऋग्वेद-रामगोविन्द निवदी पृ० ६३५,
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