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गांधीवादी अहिंसा
२४६ इस प्रकार गांधीजी ने अहिंसा को कभी सत्य का साधन, कभी सत्य का फल, कभी सत्य का प्राण और कभी अहिंसा और सत्य दोनों को एक ही बताया है। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि उनके विचार में दोनों में कौन-सा अधिक महत्त्वपूर्ण है, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनके अनुसार अहिसा और सत्य का संबंध घनिष्ठ और अटूट है; अहिंसा के बिना कोई सत्य का पालन वैसे ही नहीं कर सकता, जैसे सत्य के बिना अहिंसा का।
अहिंसा और ब्रह्मचर्य :
__ एक बार किसी कांग्रेस नेता ने गांधीजी के समक्ष (जबकि वे कांग्रेस से अलग हो गये थे ) यह प्रश्न रखा कि क्या बात है कि कांग्रेस अब नैतिकता की दृष्टि से वैसी नहीं रही जैसी सन् १९२०-२५ में थी ? यानी कांग्रेस की नैतिकता के हास का क्या कारण है ? इस प्रश्न का जो उत्तर गांधीजी ने दिया उसका सारांश इस प्रकार है- अहिंसा पर आधारित कांग्रेस-रूपी जो सत्याग्रह दल सेना ) है, उसके सेनानायक में अब वैसी ताकत नहीं रह गई है, जैसी उसमें होनी चाहिए। अतः वह अपने दल को सही रूप में प्रभावित तथा संचालित नहीं कर पा रही है। आगे उन्होंने फिर कहा कि सत्याग्रह दल के सेनापति में वैसी ताकत नहीं होनी चाहिए, जो अस्त्र-शस्त्र की प्रचुरता से प्राप्त होती है, बल्कि उसमें वह शक्ति होनी चाहिए जो जीवन की शुद्धता, दृष्ट जागरूकता और सतत आचरण से प्राप्त होती है। यह ब्रह्मचर्य का पालन किये बगैर असंभव है।' ब्रह्मचर्य केवल दैहिक आत्म-संयम तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसकी मर्यादा का बहुत बड़ा विस्तार है। इसका पूर्णरूप सभी इन्द्रियों के नियमन में देखा जाता है। अशुद्ध विचार का मन में आना भी ब्रह्मचर्य का घातक होता है। जो भी मानवीय शक्तियां हैं, उनका स्रोत वीर्य की रक्षा और ऊर्ध्वगति में है। कहने का तात्पर्य यह कि सत्याग्रह के पीछे जो अहिंसा-रूपी बहत बड़ी शक्ति काम कर रही थी, उसकी जड़ में भी ब्रह्मचर्य-शक्ति ही काम
१. गांधीजी, अहिंसा, द्वितीय भाग, खण्ड १०, पृष्ठ २१३.
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