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________________ जैन दृष्टि से अहिंसा दान की गिनती नौ पुण्यों में भी होती है - १. अन्नपुण्य - अन्नादि देने से शुभ प्रकृतियों का बंधना । २. पानपुण्य - दूध आदि पेय वस्तुओं के देने के शुभ बन्ध । ३. वस्त्रपुण्य - कपड़े देने के कारण होने वाले शुभबन्ध | ४. लयनपुण्य - निवास के लिये जगह देने के कारण शुभकर्म -बन्ध | शयनपुण्य - बिछावन आदि देने से होनेवाला पुण्य । ५. ६. मनः पुष्य - गुणियों, सज्जनों को देखकर खुश होने से जो शुभकर्म - बन्ध होता है, उसे मनःपुण्य कहा जाता है । १९३ ७. वचन पुण्य - वचन के द्वारा दूसरों की प्रशंसा करने के फलस्वरूप जो शुभ बन्ध होता है, उसे वचनपुण्य कहते हैं। ८. कायपुण्य - शरीर से दूसरे व्यक्तियों की सेवा, भक्ति आदि से होनेवाला शुभबन्ध । फलस्वरूप ९. नमस्कारपुण्य - नमस्कार से जो शुभबन्ध होता है, उसे नमस्कार पुण्य कहते हैं । पुण्य के इन नौ प्रकारों में प्रथम पांच की गिनती दान के प्रकारों में भी होती है यानी दान पुण्य है या पुण्य-संग्रह का साधन है ।" १. स्थानाङ्गसूत्र, भाग ५, स्थान ६, सूत्र १७. दान के फल : सामान्यतीर से ऐसा समझा जाता है कि दान से पुण्य की प्राप्ति होती है, किन्तु जैन धर्म में इस संबंध में कई विकल्प पाये जाते हैं । भगवती सूत्र में भगवान महावीर तथा उनके शिष्य गौतम स्वामी के बीच हुए दान - विवेचन में निम्नलिखित विकल्पों को प्रस्तुत किया गया है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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