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________________ जैन दृष्टि से अहिंसा १८९ की वृद्धि चाहता है और करता है। साथ ही दूसरों के कष्ट को कम करने या मिटाने का प्रयास भी करता है। दान : तत्त्वार्थसूत्र में दान को परिभाषित करते हुए कहा है अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् । अर्थात् अनुग्रह के निमित्त अपनी वस्तु का त्याग कर देना ही दान है। पं० सुखलालजी ने इसका विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहा है दान का मतलब है न्यायपूर्वक प्राप्त हुई वस्तु का दूसरे के लिए अर्पण करना। यह अर्पण करनेवाले कर्ता और स्वीकार करनेवाले दोनों का उपकारक होना चाहिये। अर्पण करनेवाले का मुख्य उपकार तो यह है कि उस वस्तु पर से उसकी ममता हट जाय, और इस तरह उसे सन्तोष और समभाव की प्राप्ति हो। स्वीकार करनेवाले का उपकार यह है कि उस वस्तु से उसकी जीवनयात्रा में मदद मिले, और परिणाम-स्वरूप उसके सद्गुणों का विकास हो। यद्यपि सभी दान सामान्यतौर से एक जैसे ही लगते हैं. लेकिन उनमें अपनी-अपनी विशेषतायें भी होती हैं और ये विशेषतायें उनके चार अंगों पर आधारित हैं। यानी, उन चार अंगों की विशेषतायें हो दान की विशेषता होती है। दान के चार अंग ये हैं १. विधि विशेष- देश, काल तथा श्रद्धा के औचित्य को ध्यान में रखते हुए जब उस कल्पनीय वस्तु का त्याग किया जाता है, जिसके लेने से लेनेवाले के सिद्धान्त पर आँच न आये, तब ऐसे दान में विधिविशेषता समझी जाती है। २. द्रव्य विशेष -देयवस्तु में उन गुणों का समावेश हो जो लेनेवाले का पोषण करे तथा उसका विकास करे। १. तत्त्वार्थसूत्र, ७, ३३. २. तत्त्वार्थसूत्र-विवेचनकर्ता पं० सुखलालजी, ७. ३३, पृष्ठ २७७. ३. विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषणाचद्विशेषः ॥ ३४ ॥ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ७, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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