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________________ जैन धर्म में अहिंसा शब्द का प्रयोग हुआ है।' “तिविहेण"-त्रिविधन यानी तीन विधियों से हिंसा नहीं करनी चाहिए। सामान्य तौर से व्याख्याकारों ने इन तीन विधियों को मन, वचन और काय माना है। उपासकदशांग में-मनसा, वचसा, कायसा का स्पष्ट ही प्रयोग हुआ है। मन, वचन और काय से हिंसा का निषेध करना यह साबित करता है कि मन, वचन और काय से हिंसा होती है, अर्थात् हिंसा के भाव रूप और द्रव्य रूप होते हैं। कुछ जैन विचारकों ने हिंसा को दूसरी तरह से भी विभाजित किया है तथा चार रूप दिखाये हैं १. संकल्पी-सोच-विचार कर पहले से मारने का उद्देश्य बनाकर किसी के प्राण का हनन करना। २. आरंभी-चौके-चूल्हे के काम में यानी भोजनादि तैयार करने में जो हिंसा होती है उसे आरंभी हिंसा कहते हैं। ३. उद्योगी-खेती-बारी, उद्योग आदि करने में जो प्राणातिपात होता है। ४. विरोधी--समाज, राष्ट्र आदि पर हुए शत्रुओं या अत्याचारियों के आक्रमण का विरोध करने में जो हिंसा होती है, उसे विरोधी हिंसा कहते हैं। हिंसा की उत्पत्ति एवं भेद : हिंसा की उत्पत्ति कषायों के कारण होती है। ये कषाय चार होते हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ । इन्हीं कषायों के कारण संरंभ, समारंभ तथा आरंभ हिंसा होती है। हिंसा करने का जो विचार मन में आता है, उसे संरंभ कहते हैं; हिंसा करने के लिए जो उपक्रम होते हैं उन्हें सभारंभ कहते हैं; और प्राणघात तक की क्रियाओं को आरम्भ कहा जाता है। इस प्रकार चार कषाय तथा संरंभ आदि तीन से हिंसा के बारह भेद हो जाते हैं । चूंकि हिंसा मन, १. सूत्रकृतांग, प्रथम खण्ड, तृतीय अध्ययन, उद्दशक ३, गाथा १३, १६. २. उपासकदशांग, द्वितीय खण्ड, प्रथम अध्याय, गाथा १३. ३. अहिंसा दर्शन-उपाध्याय प्रमरमुनि, सं० पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल, पृष्ठ १०१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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