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________________ १३८ जैन धर्म में श्रहिंसा सभी जगहों पर हिंसा, असत्य आदि पाँच प्रकार के पापों का त्याग करता है, वह सामायिक व्रत का पालन करनेवाला होता है । यह सामायिकव्रत अहिंसादि व्रतों के परिपूरक हैं, अतः गृहस्थों को नित्य इसकी राह पर आगे बढ़ना चाहिए | सामायिक की अवस्था में गृहस्थ भी मुनि की तरह ही होता है । " प्रोषधोपवास व्रतवाले को उपवास के दिन हिंसादि पाँच पापों को, वस्त्रालंकरण आदि शरीर-सजावट को, कृष्यादि कर्मों को त्याग देना चाहिए | षष्ठ अध्ययन में सल्लेखना - विधि बताते हुए कहा गया है कि सल्लेखना व्रत को करनेवाला व्यक्ति स्नेह, वैर, संग तथा परिग्रह को त्यागकर निर्मल मन से स्वजनों तथा परिजनों को कोमल वाणी में उनसे की गई गलतियों के लिए क्षमा करे तथा अपने अपराधों के लिए भी उन लोगों से क्षमा याचना करे। साथ ही किए, करवाए तथा अनुमोदित पापों की आलोचना करते हुए जीवन पर्यन्त पाँच महाव्रतों को पालने की प्रतिज्ञा करे | 3 सप्तम अध्ययन के अनुसार जो श्रावक मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, कन्द और बीज को कच्चे नहीं खाता है, वह सचित्तविरत होता है । जो श्रावक रात में अन्न या अन्न से बनी हुई भोज्य वस्तुएं, खाद्य ( खाने योग्य दूसरी वस्तुएँ ), लेह्य, चटनी, शर्बत आदि ग्रहण नहीं करता, वह दयाभावयुक्त 'रात्रिभुक्तविरत' यानी छठे पद का धारक होता है । जो श्रावक प्राणपीड़ा के कारणरूप सेवा, कृषि, वाणिज्य तथा आरम्भादि से अलग है, वह "आरम्भत्यागी" श्रावक कहा जाता है । इस प्रकार रत्नकरण्ड - उपासकाध्ययन ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार ) में श्रावकों के लिए सभी धार्मिक विधि-विधानों के विवेचन मिलते हैं । १. कारिका ६७, १०१, १०२. २. कारिका १०७. ३. कारिका १२४, १२५. ४. कारिका १४१, १४२, १४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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