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जैनेतर परम्परात्रों में अहिंसा अहिंसा के निषेधात्मक रूप के संबंध में, जो जीव की जान न लेने एवं मांस आदि ग्रहण न करने से संबंधित होता है, यहां पर श्री जे. बन का विचार ध्यातव्य है। वे कहते हैं-निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि पारसी-परम्परा में मांसाहार का विरोध किया हो गया है। फिर भी इतनी बात अवश्य है कि महात्मा जरथुस्त्र मांसाहार करना या पशुओं को मारना नहीं पसन्द करते थे। कारण, मांसाहार के संबंध में पूछने पर उन्होंने साफ असहमति व्यक्त की और अपने शास्त्र का भी हवाला देने को तैयार हुए, पर समयाभाव में मैं उसे नहीं देख सका। खैर ! इतनी बात तो है ही कि पारसी शास्त्र में उन पशुओं के प्रति सद्भाव व्यक्त किया गया है और उनके प्रति सद्व्यवहार बरतने को कहा गया है जो मनुष्य के लिए हितकर हैं । किन्तु जो मनुष्य के लिए घातक हैं, जिनसे मनुष्य को डर होता है कि कहीं वे उसकी जान-माल को हानि न पहँचा दें, उन्हें वह मार सकता है। अतः सैद्धान्तिक रूप से यह माना गया है कि हितकर पशुओं को अच्छी तरह पालना, उनके प्रति स्नेह रखना सुकर्म है
और उन्हें मारना, कष्ट देना आदि दुष्कर्म है। ठीक इसके विपरीत हिंसक या घातक पशुओं को मारना सुकर्म है तथा उन्हें प्रश्रय देना दुष्कर्म है।' अवेस्ता के तेरहवें अध्याय में तो कुत्ते की उपयोगिता को ध्यान में रखते हए उसके प्रति सदव्यवहार करने को कहा गया है, जिसकी कुछ विद्वानों ने आलोचना भी की है कि एक धर्मप्रणेता का एक कुत्ते के संबंध में इतना लिखना ठीक नहीं लगता।
जैन धर्म में सभी जीवों के प्रति अहिंसा का भाव व्यक्त किया गया है और उसे देखते हए पारसी धर्म में व्यक्त किया गया अहिंसा का भाव संकुचित प्रतीत होता है। यह केवल जीवों की उपयोगिता पर विचार करता है, उनकी जान पर या उनके दैहिक 1. Din-I-Dus or Religion of Spiritual Atoms, Zoroastrian
Unveiled-Jehangirji Bana, p. 615. 2. Avesta --Arthur Henry Bleeck, Fargard XIII, Introduction.
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