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________________ जैन धर्म में अहिंसा विकास में बाधा उपस्थित करता है या किसी जीव का घात करके प्रसन्न होता है उसे अहुरामजदा निकृष्ट कोटि में रखते हैं।' यहाँ तक कि किसी से बदला लेने की भावना भी उनकी नजर में गलत है, क्योंकि दूसरे से बदला लेने में भी तो अनेक प्रकार के अहित होने की संभावना रहती है। इतना ही नहीं बल्कि प्रतीकात्मक रूप से जो अहरामज़दा के दरबार को सुशोभित करते हैं उनके नाम इस प्रकार हैं-वोहुमानु ( सद्प्रवृत्ति ), अशवहिस्त ( शुद्धता और पवित्रता ), क्षत्रवर (शक्ति और अधिकार), स्पेन्दर्मद (प्रेम ), हौरवतल ( स्वास्थ्य ), अमेरेलल (अमरता) तथा फायर (अग्नि ) 13 इससे साफ जाहिर होता है कि इस परम्परा में प्रेम का स्थान बहुत ही ऊँचा है। इसीलिए कहा गया है कि एक पारसी ईश्वर के साथ-साथ आदमी को भी प्यार करे । आदमी आपस में एक दूसरे को प्यार करें। दान की महत्ता को प्रकाशित करते हुए यह परम्परा कहती है कि दान से सभी प्रकार के पापों का प्रायश्चित्त हो सकता है। दूसरे शब्दों में दान से सभी पाप मिटाये जा सकते हैं। सारांशत: पारसी परम्परा के आचार में ये सब आते हैं-सद्कर्म करना, मन, वचन और कर्म से शुद्ध होना, दूसरों का भला सोचना, सत्य बोलना, दान देना, दयावान एवं विनम्र होना, ज्ञान प्राप्त करना, क्रोध को वश में करना, पवित्र बनना, माता-पिता, शिक्षक, वृद्ध एवं वयस्क लोगों के प्रति आदर का भाव रखना, आनन्ददायक मधुर वचन बोलना, धैर्य रखना, सबके प्रति मैत्री भाव रखना, संतोष करना, अयोग्य कर्म करने पर लज्जित होना ।' इन बातों से निःसन्देह अहिंसा के विधेयात्मक रूप की पुष्टि होती है। १. गाया, हा० ३४. ३. २. पहेलवी टेक्स्ट्स । 3. Glimpses of World Religions, p. 134. 4. Ibid., p. 139. 5. Ibid. 6. Ibid., pp. 139-140. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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