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निश्चयनय / ६७
मनःस्थिति में परिवर्तन निश्चयनयात्मक उपदेश से जब जीव स्वयं को देह से भिन्न चिन्मात्र ज्योति समझ लेता है, तब जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधि का भय समाप्त हो जाता है। पर में आसक्ति नहीं रहती। पर के कर्ता-हर्ता होने के अहंकार से वह मुक्त हो जाता है। इससे परमशान्ति का आविर्भाव होता है। प्रत्येक जीव में एक जैसी शक्तियाँ हैं, प्रत्येक आत्मा परमात्मा बनने की योग्यता रखता है, जीवों की इस समानता के बोध से सब जीवों के प्रति समभाव उत्पन्न होता है, प्राणिमात्र के प्रति मैत्री उदित होती है। कोई बड़ा, कोई छोटा, कोई ऊँचा, कोई नीचा, कोई स्पृश्य, कोई अस्पृश्य, कोई अपना, कोई पराया प्रतीत नहीं होता। सबमें समानस्वरूपात्मक ब्रह्म के दर्शन होते हैं। तब किसी के प्रति न राग का भाव रहता है, न द्वेष का, न हिंसा की भावना उत्पन्न होती है, न अहंकार। लौकिक जीवन मैत्रीपूर्ण हो जाता
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