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________________ निश्चयनय / ६५ वे परमार्थतः मोक्षमार्ग नहीं हैं, शुद्धात्मानुभूति परमार्थतः मोक्षमार्ग है।' अतः जो व्यवहार को ही परमार्थ मान लेते हैं वे समयसार ( शुद्धात्मा ) का अनुभव नहीं कर पाते। परमार्थ को ही परमार्थबुद्धि से ग्रहण करने वालों को समयसार का अनुभव होता है । ' २ " जो मनुष्य व्यवहार को ही परमार्थरूप से ग्रहण करते हैं उनका परमार्थ को प्राप्त कर पाना असम्भव है । तुष को ही चावल समझ लेनेवाले तुष ही प्राप्त करते हैं, चावल नहीं ।" " ये कथन इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि आत्मा और मोक्षमार्ग के विषय में जीव की जो अनादि मिथ्याबुद्धियाँ होती हैं और जो मिथ्या उपदेश तथा निश्चयनिरपेक्ष व्यवहार के अवलम्बन से पुष्ट हो जाती हैं, वे व्यवहारसापेक्ष निश्चयनय का आश्रय लेने से ही दूर होती हैं। सम्यक् धारणाओं की उत्पत्ति निश्चयनय के उपदेश से अनादि मिथ्या धारणाओं का विनाश होता है और सम्यक् धारणाएँ उत्पन्न होती हैं। निश्चयनयात्मक उपदेश पाकर जीव को यह ज्ञान होता है कि मैं मूलतः शुद्धचैतन्यस्वरूप हूँ, मोहरागादिभाव मेरे मौलिक स्वरूप में विद्यमान नहीं हैं। मेरे साथ संयुक्त पुद्गलकर्म, शरीर तथा अन्य जड़पदार्थ भी मेरे स्वरूप में शामिल नहीं हैं, मुझसे पृथक् हैं, क्योंकि वे जड़स्वभावात्मक हैं। स्त्रीपुत्रादि चेतनपदार्थ भी मुझसे भिन्न हैं, क्योंकि उनके प्रदेश ( सत्ता ) भिन्न हैं। मैं स्वरूप को छोड़कर किसी भी परद्रव्य का रूप धारण नहीं करता, न ही किसी परद्रव्य की सत्ता मेरी संत्ता के भीतर समाविष्ट होती है। इसलिए मैं न तो परद्रव्य का कर्ता हूँ, न भोक्ता, न रक्षक, न नाशक । इसी प्रकार परद्रव्य भी मेरा कर्त्ता - भोक्ता आदि नहीं है। मैं एक अखण्ड तत्त्व हूँ, मेरे गुणपर्याय मुझसे अभिन्न हैं। मैं मूलत: एकस्वभावात्मक हूँ, अनादि और अनन्त हूँ। मैं न जन्म लेता हूँ, न मरता हूँ । सुख मेरा स्वभाव है। अतः मेरी अनुभूति में आनेवाला सुख मुझसे ही उद्भूत होता है, किसी परद्रव्य से नहीं आता । निश्चयनयात्मक उपदेश से अपने इस मौलिक स्वरूप का ज्ञान होने पर इसकी प्राप्ति जीवन का लक्ष्य बन जाती है। १. समयसार / आत्मख्याति / गाथा, ४१४ २. " ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते ते समयसारमेव न चेतयन्ते । य एव परमार्थं परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते त एव समयसारं चेतयन्ते ।" वही ३. "व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः । तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम् ।। वही / कलश, २४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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