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________________ निश्चयनय / ४३ चैतन्यभाव की 'जीव' संज्ञा जिनेन्द्रदेव ने जीव और शरीर तथा जीव और रागादि में कथंचित् अभेद दर्शाने के लिए ( ताकि शरीरघात से जीवघातरूप हिंसा तथा पर्याय की अपेक्षा आत्मा अशुद्ध सिद्ध हो सके ) उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि का आश्रय लेकर जीवसंयुक्त शरीर एवं रागादि भावों को जीव शब्द से वर्णित किया है। किन्तु कोई उन्हें वास्तविक जीव न समझ ले, इस सम्भावना का निराकरण करने हेतु नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अनुसरण कर शुद्ध चैतन्यरूप वास्तविक जीव को जीव शब्द से अभिहित किया है और यह स्पष्ट किया है कि जो शरीर और रागादि को जीव कहा गया है वह उपचार ( उपचारावलम्बी व्यवहारनय ) से कहा गया है, नियतस्वलक्षणावलम्बी निश्चयनय से नहीं। इससे शरीर और रागादि के वास्तविक जीव होने का निषेध हो जाता है और उपचार का अर्थ समझनेवाले शिष्य शरीर और रागादि को जीव संज्ञा दिये जाने का अभिप्राय समझ लेते हैं तथा उन्हें वास्तविक जीव मानने की भूल नहीं करते। जिनेन्द्रदेव के उपदेश के आधार पर नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से परमार्थ ( वास्तविक ) आत्मा का निश्चय कराते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते पण्णाए पित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा ।। - नियतस्वलक्षण का अवलम्बन करने वाली प्रज्ञा से पहचानना चाहिए कि मेरे भीतर जो चैतन्यभाव है वही मैं हूँ, अन्य लक्षणवाले शेष भाव मुझसे भिन्न इसी उद्देश्य से आचार्य अमृतचन्द्र भी कहते हैं कि एकमात्र चैतन्यभाव ही आत्मा है, ऐसा निश्चय करना चाहिए - "चिन्मात्र एव आत्मा निश्चेतव्यः।३ चैतन्यभाव में ही वास्तविक आत्मा का निश्चय कराने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि जिनेन्द्रदेव ने जीवसंयुक्त शरीर को जीवसंज्ञा दी है, किन्तु वह उपचारावलम्बी व्यवहारनय से दी है ( नियतस्वलक्षणावलम्बी निश्चयनय से नहीं ) - १. समयसार/गाथा, २९७ २. “यो हि नियतस्वलक्षणावलम्बिन्या प्रज्ञयाप्रविभक्तश्चेतयिता सोऽयमहम्।" वही/आत्मख्याति/गाथा, २९७ ३. वही/आत्मख्याति/गाथा, २९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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