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________________ ४२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन स्वात्मलीनतारूप सम्यग्चारित्र इन तीन के समूह का नाम ही ऐकाय या शुद्धोपयोग है। अत: मौलिक-अभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से अथवा अभेदप्रधान निश्चयनय से देखने पर अकेला ऐकाय या शुद्धोपयोग ही मोक्षमार्ग है, यह निर्णय होता है। तथा संज्ञादि-भेदप्रधान व्यवहारनय से निरीक्षण करने पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीन का समूह मोक्षमार्ग है, इस निर्णय पर पहुँचते हैं।' मौलिक-अभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि ( निश्चयनय ) से अवलोकन करने पर यह भी निश्चय होता है कि आत्मा के स्वस्वामी, कर्ताकर्म, भोक्ताभोग्य, ग्रहणत्याग, ज्ञेयज्ञायक, श्रद्धेय-श्रद्धानकारक, साध्यसाधक, आधाराधेय आदि सम्बन्ध निजस्वभाव के ही साथ होते हैं। इनका स्पष्टीकरण पूर्व में प्रसंगानुसार किया जा चुका है। नियतस्वलक्षणावलम्बिनी दृष्टि से वस्तुस्वरूप का निर्णय ज्ञाता की जो दृष्टि नियतस्वलक्षण के आधार पर वास्तविक वस्तु का निर्णय करती है वह नियतस्वलक्षणावलम्बिनी दृष्टि है तथा जो नियतस्वलक्षण के बिना संयोगादि सम्बन्ध के आधार पर प्रयोजनवश अन्य वस्तु को अन्य वस्तु का नाम देती है तथा अन्य के द्वारा इस प्रकार नाम दिये जाने की वास्तविकता को समझते हुए उसके प्रयोजन का निर्णय करती है, वह उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि है, क्योंकि संयोगादि सम्बन्ध के आधार पर प्रयोजनवश अन्य के लिए अन्य के नाम का प्रयोग करना उपचार कहलाता है। आगम में नियतस्वलक्षण के आधार पर वास्तविक जीवादि तत्त्वों को भी जीवादि के नाम से वर्णित किया गया है तथा नियतस्वलक्षण के अभाव में जो जीवादि नहीं हैं उन्हें भी उपचार से जीवादि संज्ञाएँ दी गयी हैं। नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से यह निर्णय होता है कि इनमें वास्तविक जीवादि कौन हैं ? १. (क) “तस्य तु मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन निर्णयो भवति। ऐकायं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वात् द्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन निर्णयो भवति। समस्तवस्तुसमूहस्यापि भेदाभेदात्मकत्वानिश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग-द्वयस्यापि प्रमाणेन निश्चयो भवतीत्यर्थः।" प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति, ३/४२ (ख) “तथा भेदनयेन सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्ररूपस्त्रिविधमोक्षमार्गो भवति। स एवाभेदनयेन श्रामण्यापरमोक्षमार्गनामा पुनरेक एव।" वही ३/६६ २. (क) “अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्रसमारोपणमसद्भूतव्यवहारः। असद्भूतव्यवहार एवोपचारः।" आलापपद्धति/सूत्र, २०७-२०८ (ख) “मश्चाः क्रोशन्ति इति तात्स्थ्यात् तच्छब्दोपचारः।" ___ श्लोकवार्तिक, २/१/६/५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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