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________________ ४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन जा सकता है।' निश्चयनय और व्यवहारनय भी श्रुतज्ञाननामक प्रमाण के अवयव हैं। इसलिए प्रमाणैकदेश हैं। अत: उनसे वस्तु के पक्षविशेषों की सत्यता प्रमाणित होती है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने इन दोनों नयों को सत्य बतलाया है, क्योंकि वस्तु के शुद्ध-अशुद्ध रूप इनके विषय हैं और वस्तु की प्रतीति शुद्ध-अशुद्ध दोनों रूपों में होती है। आचार्य श्री जयसेन का कथन है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के समूह को मोक्षमार्ग कहना भेदप्रधान या पर्यायप्रधान व्यवहारनय से सत्य होता है। ‘ऐकाग्र्य' को मोक्षमार्ग कहना अभेदप्रधान या द्रव्यप्रधान निश्चयनय से सत्य होता है तथा चूँकि समस्त वस्तुसमूह भेदाभेदात्मक है इसलिए मोक्षमार्ग के निश्चयव्यवहारात्मक दोनों रूप प्रमाण से सत्य सिद्ध होते हैं।" समयसार की टीका में आचार्य श्री अमृतचन्द्र लिखते हैं – “जब जीव और पुद्गल की अनादिबन्धपर्याय को दृष्टि में रखकर अनुभव किया जाता है तब जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ तत्त्व सत्य प्रतीत होते हैं, किन्तु अकेले जीवद्रव्य के शुद्ध चैतन्य स्वभाव को दृष्टि में रखकर अनुभव करते हैं तब असत्य ठहरते हैं। इसी प्रकार "अनादि बद्धस्पृष्टत्व पर्याय से आत्मा का अवलोकन करने पर बद्धस्पृष्टत्व भूतार्थ घटित होता है, किन्तु जब पदगल के जड़ स्वभाव को कभी भी ग्रहण न करनेवाले आत्मस्वभाव पर ध्यान दिया जाता है तब आत्मा का बद्धस्पृष्टत्व ( पुद्गलकर्मों से संश्लेषसम्बन्ध ) अभूतार्थ १. नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः ।। नयविवरण, १० २. "श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः।" समयसार/आत्मख्याति, १४३ ३. “रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपादाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः। यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मन: कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपादाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनयः। उभावप्येतौ स्तः शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य प्रतीयमानत्वात्।" प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका, २/९७ ४. “तस्य तु मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात् पर्याय प्रधानेन व्यवहारनयेन निर्णयो भवति। ऐकाग्र्यं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वात् द्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन निर्णयो भवति। समस्तवस्तुसमूहस्यापि भेदाभेदात्मकत्वान्निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गद्वयस्यापि प्रमाणेन निश्चयो भवतीत्यर्थः।" प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति, ३/४२ “बहिर्दृष्ट्या नवतत्त्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबन्धपर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि। अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि।" • समयसार/आत्मख्याति, गाथा १३ ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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