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२५४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
स्पष्ट भाषा
अत: यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्राथमिक श्रोताओं के समक्ष जब भी सांकेतिक भाषा का प्रयोग किया जाय तब उसके तात्पर्य को स्पष्ट भाषा में समझा दिया जाय। सांकेतिक भाषा का प्रयोग यथासम्भव कम किया जाय, स्पष्ट भाषा का प्रयोग अधिक किया जाय।
किन्तु अधिकांश आधुनिक प्रवचनकार ऐसा नहीं करते। वे अपनी विद्वत्ता दर्शाने के लिए अथवा किसी अन्य प्रयोजन से सांकेतिक भाषा का ही प्रयोग करते हैं और सर्वज्ञ के सीधे-सरल उपदेश को श्रोताओं के लिए पहेली बना देते हैं। सांकेतिक भाषा में किए गए कथनों को स्पष्ट भाषा में किस प्रकार समझाया जाना चाहिए, इसके कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं -
सांकेतिक भाषा १. आत्मा और शरीर में व्यवहार- १. आत्मा और शरीर में संश्लेषनय से एकत्व है, निश्चयनय से नहीं। रूप एकत्व है, तादात्म्यरूप नहीं।
२. निश्चयनय से आत्मा कर्मों से २. आत्मा और कर्मों में तादात्म्यअबद्ध है, व्यवहारनय से बद्ध। रूपबन्ध नहीं है, संश्लेषरूप एवं
निमित्तनैमित्तिकभावरूप बन्ध है। ३. निश्चय से न बन्ध है, न मोक्ष। ३. बन्ध और मोक्ष आत्मा की
स्वाभाविक अवस्थाएँ नहीं हैं, नैमित्तिक
( औपाधिक ) हैं। ४. निश्चय से आत्मा न प्रमत्त है, ४. प्रमत्तता-अप्रमत्तता आत्मा की न अप्रमत्त, शुद्ध ज्ञायक है। स्वाभाविक दशाएँ नहीं हैं, नैमित्तिक हैं।
५. 'आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र ५. आत्मा और ज्ञानदर्शनादि गुणों हैं', यह व्यवहारनय से कहा जाता है। में संज्ञादि की अपेक्षा भिन्नता है, प्रदेश निश्चयनय से न ज्ञान है, न दर्शन, न की अपेक्षा वे अभिन्न हैं, एकवस्तुरूप चारित्र, ज्ञायकभावमात्र है।
६. निश्चय से केवली भगवान् ६. तन्मय होकर स्वात्मा को ही स्वात्मा को ही जानते हैं, व्यवहार से जानते हैं, लोकालोक को तन्मय हुए लोकालोक को।
बिना जानते हैं। ७. जीव व्यवहार से रागादिभावों ७. कर्मसंयुक्त अशुद्धावस्था में का कर्ता है।
रागादिभावों का कर्ता है, स्वभावत:
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