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________________ निश्चयाभास एवं व्यवहाराभास / २५३ की है कि इन लोगों को पहले पाप के पंक से निकाला जाय, किन्तु प्रयत्न पुण्य को छुड़ाने का किया जाता है। जिसे लोग करते ही नहीं, उसे छुड़ाने की चेष्टा की जाती है और जिसे वे दिन-रात करते हैं उसके विषय में चर्चा ही नहीं होती। जो सर्वप्रथम हेय है उसकी हेयता पर प्रवचन में सर्वप्रथम बल नहीं दिया जाता, जिसकी हेयता का क्रम बाद में आता है उसे सर्वप्रथम हेय बतलाया जाता है। अत: जिस सिद्धान्त के आधार पर कथित तत्त्वज्ञानी एकान्त प्रवचन का औचित्य सिद्ध करते हैं वह निराधार, कल्पित, आगमविरुद्ध एवं अमनोवैज्ञानिक है। सभी को निश्चयप्रधान उपदेश का सिद्धान्त पात्र-सापेक्ष न होने से एकान्त एवं मिथ्या है। इस प्रकार के एकान्त प्रवचनों का श्रोताओं को एकान्तवादी बनाने में प्रमुख हाथ है। सांकेतिक भाषा का प्रयोग यह भी एकान्तवाद का एक कारण है। अधिकांश प्रवचनकार स्पष्ट भाषा में तथ्य का निरूपण नहीं करते, अपितु उसे नय के नाम द्वारा संकेतित करते हैं, जिससे वह स्पष्ट नहीं होता और श्रोता कुछ का कुछ अर्थ ग्रहणकर एकान्तवादी बन जाते हैं। जैसे 'जीव व्यवहारनय से रागादिभावों का कर्ता है', इस कथन में 'व्यवहारनय' शब्द इस तथ्य का संकेत करता है कि रागादिभावरूप से परिणत होना जीव का स्वभाव नहीं है, अपितु वह कर्मोदयवशात् रागादिरूप से परिणत होता है। इतने गम्भीर तथ्य को 'व्यवहारनय' इस एक शब्द के संकेत द्वारा समझने के लिए नयों का सूक्ष्म ज्ञान अनिवार्य है। किन्तु सामान्य श्रोताओं के लिए यह सम्भव नहीं है। नयों के रहस्य को समझने के लिए गहन श्रवण-मनन की आवश्यकता है, जो धीरे-धीरे ही सम्भव है। अत: जब तक सामान्य श्रोता इसमें निपुणता प्राप्त नहीं कर लेते तब तक उनके लिए सांकेतिक भाषा ( नय के नाम द्वारा तथ्य का संकेत करनेवाली भाषा ) का प्रयोग न कर, स्पष्ट भाषा का प्रयोग किया जाना आवश्यक है। इसके बिना वे तथ्य को समझने में असमर्थ रहते हैं और अन्धकार में भटकते रहते हैं। "यह यथार्थ हेत है', 'यह उपचरितहेत है', 'यह निश्चयनय का कथन है', 'यह व्यवहारनय का कथन है', 'निश्चयनय से आत्मा ऐसा है', 'व्यवहारनय से ऐसा है'' - इस प्रकार के वक्तव्य सामान्य श्रोताओं को पहेलियों के समान प्रतीत होते हैं और वे इनके मर्म को समझ न पाने के कारण इनका काल्पनिक अर्थ लेकर तत्त्व को मिथ्यारूप में ग्रहण करते हैं और एकान्तवादी बन जाते हैं। १. इस आशय का उल्लेख पं० टोडरमल जी ने मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अधिकार (पृ० २५४ ) में किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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