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________________ निश्चयाभास एवं व्यवहाराभास / २४१ जीवों में केवलज्ञानी बनने की शक्ति है, अत: आगम में सभी जीवों को निश्चयनय से अर्थात् द्रव्यदृष्टि से केवलज्ञानस्वभाववाला बतलाया गया है, पर्यायप्रधान व्यवहारनय से केवलज्ञानरहित ही कहा गया है। किन्तु व्यवहारनय को अस्वीकार कर केवल निश्चयनय के कथन को ही द्रव्य और पर्याय दोनों अपेक्षाओं से सत्य माननेवाले निश्चयाभासी स्वयं को वर्तमान पर्याय की अपेक्षा भी केवलज्ञानी मान लेते हैं। रागादिभाव आत्मा के स्वाभाविक भाव नहीं हैं, औपाधिक भाव हैं। इस कारण सर्वज्ञ ने निश्चयनय की अपेक्षा आत्मा को रागादिशन्य बतलाया है और व्यवहारनय से अर्थात् पर्यायदृष्टि से रागादिभावमय। किन्तु व्यवहारनय के कथन में श्रद्धा न रखने वाले एकान्तनिश्चयावलम्बी स्वयं को पर्याय की अपेक्षा रागादिभावमय न मानकर सर्वथा रागादिशून्य समझते हैं। कर्मों के साथ आत्मा का तादात्म्यसम्बन्ध अर्थात् एकद्रव्यात्मक सम्बन्ध नहीं है, इसलिए मौलिक भेद की अपेक्षा निश्चयनय से जीव को कर्मों से अबद्ध वर्णित किया गया है। किन्तु, जीव और पुद्गलकर्मों में परस्पर संश्लेष और निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध हैं, इसलिए बाह्यसम्बन्ध की अपेक्षा व्यवहारनय से बद्ध बतलाया गया है। परन्तु, सिर्फ निश्चयनय के कथन को ही सर्वथा सत्य माननेवाले निश्चयैकान्तवादी स्वयं के सर्वथा अबद्ध होने की श्रद्धा करते हैं। भगवान् ने निश्चयनय से शुद्धात्मानुभव को मोक्षमार्ग निरूपित किया है और उसका साधक होने से सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग को व्यवहारनय से मोक्षमार्ग नाम दिया है। किन्तु, एकान्तनिश्चयावलम्बी जीव व्यवहारनय के कथन को सर्वथा असत्य मानने के कारण सम्यक्त्वपूर्वक शभोपयोग को निश्चयमोक्षमार्ग का साधक स्वीकार नहीं करते और शुद्धात्मानुभव की सामर्थ्य प्राप्त किये बिना ही 'मैं सिद्ध समान शुद्ध हूँ', 'केवलज्ञानादिसहित हूँ', 'द्रव्यकर्मादिरहित हूँ, इत्यादि काल्पनिक चिन्तन करते हैं और सोचते हैं कि वे शद्ध आत्मा का अनुभव कर रहे हैं। इससे शुद्धात्मानुभव तो होता नहीं है, उलटे शुभप्रवृत्ति का अवलम्बन न करने से शुद्धात्मानुभव की सामर्थ्य भी प्राप्त नहीं हो पाती और अशुभ में डूबकर केवल पाप का बन्ध करते हैं। शुभोपयोग मोक्ष का साक्षात् मार्ग नहीं है, क्योंकि उससे पुण्यबन्ध होता है। इसलिए आगम में उसे निश्चयनय से हेय कहा गया है, पर अशुभ से बचाकर परम्परया मोक्ष का साधक होने से व्यवहारनय की अपेक्षा उपादेय भी बतलाया गया है, किन्तु निश्चयाभास से ग्रस्त मनुष्य उसे सर्वथा हेय मान बैठते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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