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________________ २२४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन प्रतिकूल होने पर उत्पत्ति असम्भव हो जाती है। यह अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति अन्य द्रव्य के जिस परिणाम से उत्पन्न होती है, उसे ही निमित्त नाम दिया जाता है। जैसे आत्मा के सम्यग्दर्शन-धर्म की अभिव्यक्ति में रोड़ा अटकाने वाली बाह्यस्थिति दर्शन-मोहनीय कर्म के उदय द्वारा निर्मित होती है, और उस रोड़े को स्वपौरुष से हटाने में सहायक बाह्य-स्थिति का निर्माण समीचीन देवशास्त्र-गुरु के उपदेश से होता है, अत: ये दोनों 'निमित्त' संज्ञा को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार कोई द्रव्य अपने में से दूसरे द्रव्य का धर्म उत्पन्न किये बिना, उस द्रव्य से ही उत्पन्न हो सकने वाले धर्म की उत्पत्ति में साधक या बाधक स्थिति का हेतु बनता है। यही निमित्त का लक्षण है। निश्चय से निषेध का अर्थ सर्वथा निषेध नहीं निमित्त को अकिंचित्कर सिद्ध करने के लिए पूर्वोक्त पण्डितगण यह तर्क देते हैं कि आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने पर के साथ निश्चयनय से कारकात्मक सम्बन्ध का निषेध किया है। किन्तु वे भूल जाते हैं कि निश्चयनय से निषेध का अर्थ सर्वथा निषेध नहीं है, उसमें कथंचित् ( व्यवहारनय की अपेक्षा ) अनिषेध भी गर्भित है। वास्तविकता यह है कि जैसे अभिन्न या स्वद्रव्याश्रित हेतु मुख्य हेतु है और भिन्न या परद्रव्याश्रित हेतु सहकारी या गौण', इसी प्रकार अभिनकारक मुख्यकारक है और भित्रकारक सहकारी या गौण। निश्चयनय 'मुख्य' की दिशा से निर्णय करता है, इसलिए उसके द्वारा देखने पर मुख्य कारक का ही अस्तित्व दिखाई देता है, सहकारी कारक दृष्टि में नहीं आता। इस कारण निश्चयनय की अपेक्षा परद्रव्याश्रित कारक के अस्तित्व का निषेध किया गया है। किन्तु, व्यवहारनय से देखने पर परद्रव्याश्रित अमुख्य कारक का अस्तित्व अनुभव में आता है, इसलिए व्यवहारनय की अपेक्षा निषेध नहीं है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वयं कहते हैं कि निमित्त-नैमित्तिकभाव का निषेध नहीं है, इसलिए जीव और पुद्गल के परस्पर निमित्त बनने पर ही दोनों के परिणामों की उत्पत्ति होती है। तथा उन्होंने जोर देकर कहा है कि आत्मा के रागादिरूप परिणमन में परद्रव्य का संग ही निमित्त है, क्योंकि जैसे सूर्यकान्तमणि स्वयं अग्निरूप-परिणमित नहीं होता ( सूर्य के निमित्त से ही परिणमित होता है ), वैसे ही १. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग २/पृ० ८३९ तथा प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका १/१६ २. “न तौ ( धर्माधर्मी ) तयोः ( गतिस्थित्योः ) मुख्यहेतू, किन्तु व्यवहारनयव्यवस्थापितौ उदासीनौ।” पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा ८९ ३. "निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि परिणामः।" समयसार/आत्मख्याति/सूत्र ८०-८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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