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________________ उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ । २२३ प्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तत्सिद्धिः। यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत् कार्यमिति प्रतीतम् ।' -कोई यह प्रश्न करे कि सहकारी कारण ( निमित्त ) और कार्य में एकद्रव्यप्रत्यासत्ति ( द्रव्यात्मक अभेदरूप निकटता ) नहीं है, तब उनमें कारणकार्यभाव कैसे घटित हो सकता है ? तो इसका समाधान यह है कि उनमें कालप्रत्यासत्ति होती है, उससे घटित होता है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि जिसके पश्चात् जो अवश्य होता है वह उसका सहकारी कारण होता है और दूसरा कार्य। यहाँ कारण और कार्य की नियमित पूर्वापरता को ही कालप्रत्यासत्ति कहा गया है। इसी से अन्वय-व्यतिरेक घटित होता है, क्योंकि जहाँ कारण-कार्य की नियमित पूर्वापरता होती है, वहाँ कारण के सद्भाव में ही कार्य का सद्भाव होता है और कारण के अभाव में कार्य का अभाव। अतः सहकारी कारण और कार्य का अन्वय-व्यतिरेक ही निमित्त-नैमित्तिक संज्ञा का हेतु है। अन्य वस्तु में कोई धर्म उत्पन्न करना निमित्त का लक्षण नहीं कथित विद्वान् निमित्त को असत्य सिद्ध करने के लिए यह तर्क देते हैं कि क्या एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में कोई धर्म उत्पन्न कर सकता है ? यदि नहीं तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का निमित्त कैसे बन सकता है ? इस बात को वे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं - "क्या एक वस्तु के कार्य का कारण-धर्म दूसरी वस्तु में रह सकता है ?" ऐसा कहते हुए उक्त विद्वान् यह भूल जाते हैं कि दूसरे द्रव्य में अपने भीतर से कोई धर्म उत्पन्न करना निमित्त का लक्षण नहीं है, अपितु दूसरे द्रव्य से स्वतः उत्पन्न होने वाले धर्म ( कार्य ) की उत्पत्ति में बाह्य सहायक मात्र बनना निमित्त का लक्षण है। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है कि न तो जीव अपने में से पुद्गल के धर्म को उत्पन्न करता है, न पुद्गल अपने में से जीव के धर्म को, तथापि एक-दूसरे के निमित्त से ही वे अपना-अपना धर्म उत्पन्न करते हैं।' कारण यह है कि द्रव्य में स्वकार्योत्पत्ति की शक्ति रहते हुए भी, यदि बाह्य स्थिति उसकी उत्पत्ति के अनुकूल होती है, तभी वह उत्पन्न हो पाता है। बाह्य स्थिति के १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक/अध्याय १/सूत्र ७/पृ० १५१ २. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग २/पृ० ८३८ ३. (क) समयसार/गाथा ८०-८१ (ख) “निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वाद् इतरेतरनिमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि परिणामः।" वही/आत्मख्याति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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