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________________ उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ । २१७ आरोप वास्तविक धर्म का ही किया जाता है एक वस्तु पर दूसरी वस्तु के धर्म का आरोप उपचार कहलाता है। उपचार के नियम के अनुसार किसी वस्तु पर उसी धर्म का आरोप किया जा सकता है जो अन्यत्र प्रसिद्ध हो, अर्थात् जिसकी किसी न किसी वस्तु में वास्तव में सत्ता पायी जाय। जिस धर्म की लोक में सत्ता ही न हो उसका आरोप उपचार नहीं कहलाता, जैसा कि भट्ट अकलंकदेव का कथन है - “सति मुख्ये लोके उपचारो दृश्यते, यथा सति सिंहे .... ..... अन्यत्र क्रौर्यशौर्यादिगुणसाधर्म्यात् सिंहोपचारः क्रियते। न च तथेह मुख्यं प्रमाणमस्ति। तदभावात् फले प्रमाणोपचारो न युज्यते।'' - लोक में मुख्य वस्तु के होने पर ही उसका अन्यत्र उपचार देखा जाता है, जैसे सिंह वास्तव में होता है, इसीलिए क्रौर्यशौर्यादिगुणों की समानता के कारण किसी बालक में सिंहत्व का उपचार किया जाता है। किन्तु यहाँ तो मुख्यवस्तुभूत प्रमाण की ही सत्ता नहीं है, इसलिए उसके फल में प्रमाणत्व का उपचार उपपन्न नहीं होता। धवलाकार ने भी कहा है, "ण चोवयारेण दंसणावरणणिद्देसो, मुहियस्साभावे उवयाराणुववत्तीदो' अर्थात् ( दर्शन गुण को अस्वीकार करने पर ) यह भी नहीं कहा जा सकता कि दर्शनावरण का निर्देश केवल उपचार से किया गया है, क्योंकि मुख्य वस्तु के अभाव में उपचार की उपपत्ति नहीं होती ( अर्थत् यदि दर्शनावरण वास्तव में न हो तो उसका अन्यत्र उपचार सम्भव नहीं है)। उक्त पंडितजन स्वयं स्वीकार करते हैं कि “जो धर्म लोक में पाया जाता है, उसी का एक द्रव्य के आश्रय से दूसरे द्रव्य पर आरोप किया जा सकता है। जिस धर्म का सर्वथा अभाव होता है, उसका किसी पर आरोप करना भी नहीं बनता। उदाहरणार्थ, लोक में बन्ध्यासुत या आकाशकुसुम नहीं पाये जाते, अत: उनका किसी पर आरोप भी नहीं किया जा सकता।" उपचार के इस नियम से सिद्ध है कि यदि एक वस्तु को दूसरी वस्तु के कार्य का उपचार से निमित्त कहा जाता है, तो लोक में कहीं न कहीं एक वस्तु दूसरी वस्तु के कार्य का निमित्त वास्तव में होती है, तभी तो उसके निमित्तरूप धर्म का कहीं और उपचार करना सम्भव होता है। लोक में निमित्त की मुख्यरूप से सत्ता १. तत्त्वार्थराजवार्तिक/अध्याय १/सूत्र १२ २. धवला/पुस्तक ७/खण्ड २/भाग १/सूत्र ५६ ३. जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा/भाग २/पृ० ४९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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