SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादश अध्याय उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ पूर्वचर्चित पण्डितवर्ग ने निश्चय और व्यवहार के स्वरूप को या तो सम्यग्रूप से ग्रहण नहीं किया अथवा उसे जानबूझकर तोड़ा-मरोड़ा है और उसे ही समीचीन बतलाते हुए अनेक विषयों की आगमविरुद्ध व्याख्याएँ की हैं। उनमें से एक है - उपादान और निमित्त। जैसा कि पूर्व में निर्देश किया गया है, जो वस्तु स्वयं कार्यरूप में परिणत होती है वह उपादान कहलाती है और जो उसके परिणमन में बाह्यत: सहायक होती है वह निमित्तः जैसे मिट्टी स्वयं घटरूप में परिणत होती है इसलिए वह घट का उपादान कारण है और कुम्भकार उसके घटरूप-परिणमन में बाह्यत: सहायक होता है, अत: घट का निमित्त कारण है। इस प्रकार निमित्त एक वास्तविकता है, किन्त कथित पण्डितवर्ग ने उसके विषय में अनेक मिथ्या धारणाएँ प्रचलित की हैं। उनके मिथ्यात्व का प्रदर्शन इस अध्याय का विषय है। पहली मिथ्या धारणा यह फैलाई गई है कि कोई भी वस्तु अन्य वस्तु के कार्य का वास्तव में निमित्त नहीं होती, अपितु उसे उपचार से निमित्त कहा जाता है। वे कहते हैं - “एक वस्तु के कार्य का दूसरी वस्तु को निमित्तकर्ता कहना मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहने के समान उपचरितवचन ही है।" “एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य में सहायतारूप व्यापार करता है, यह कथन-मात्र है। प्रत्येक द्रव्य अपना-अपना व्यापार स्वयं करता है, पर उनके एक साथ होने का नियम है। मात्र इसलिए वहाँ उपादान से भिन्न दूसरे द्रव्य के कार्य में निमित्त-व्यवहार किया जाता है।" ___यह धारणा कितनी मिथ्या है, इसका बोध निम्नलिखित युक्तियों और आर्षवचनों से भलीभाँति हो जाता है। १. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग १/पृ० ८३८ २. वही/भाग २/पृ० ८३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy