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________________ १७६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन जंक्शन पर हमें एक रेलगाड़ी को छोड़ना और दूसरी को पकड़ना आवश्यक होता है, किन्तु जिस गाड़ी को छोड़कर दूसरी गाड़ी पकड़ते हैं, उसे यदि पहले न पकड़ा जाय, तो दूसरी गाड़ी तक पहुँचना ही सम्भव न हो पाएगा। इसी प्रकार शुद्धोपयोग में आने के लिये शुभोपयोग को छोड़ना होता है, किन्तु उसके पहले यदि शुभोपयोग का अवलम्बन न किया जाय, तो शुद्धोपयोग में आने की क्षमता ही उत्पन्न न हो पायेगी। इस प्रकार शुभोपयोगरूप व्यवहारमोक्षमार्ग जीव को शुद्धोपयोगरूप निश्चयमोक्षमार्ग के निकट पहुँचानेवाला साधन है, जिससे उनमें साध्य - साधकभाव सिद्ध होता है और साध्य - साधकभाव से परस्परसापेक्षता फलित होती है। व्यवहारधर्म आंशिक शुद्धि का हेतु पूर्वोक्त विद्वानों का यह कथन समीचीन नहीं है कि शुभ परिणाम आंशिक शुद्धि का भी कारण नहीं है । ' शुभ परिणाम के द्वारा व्यक्ति पाप से निवृत्त होता १ और पुण्यबन्ध करता है। इससे पापरूपी अशुद्धता नष्ट हो जाने से आंशिक शुद्धता उत्पन्न होती है। यदि पाप अशुद्धता है तो उसके हटने से आंशिक शुद्धता कैसे उत्पन्न नहीं होगी ? विषयानुराग की निवृत्ति से आंशिक शुद्धता आती है। वस्त्र का आधा मैल धुल जाने पर क्या वह आधा स्वच्छ नहीं हो जाता ? आधा रोग कम हो जाने पर क्या आधी नीरोगता नहीं आती ? अशुभ और शुभ ये दो ही अशुद्धतायें तो आत्मा में हैं। क्या अशुद्धता का एक अंश कम होने से आंशिक शुद्धता का आविर्भाव नहीं होता ? २ श्री ब्रह्मदेव सूरि का कथन है कि शुभोपयोग से पापास्रव का संवर होता हैं। पं० टोडरमल जी का भी मत है कि शुभप्रवृत्ति से वैराग्यभाव की वृद्धि होती है, जिससे कामादि वासनाएँ क्षीण होती हैं और क्षुधा, पिपासा आदि में भी अल्प क्लेश होता है। इसलिये शुभोपयोग का अभ्यास करना चाहिये। पंडित जी ने स्पष्ट कहा है कि तत्त्वचिन्तन ( जो कि शुभोपयोग है ) से परिणाम विशुद्ध होते हैं और सम्यक्त्वप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । * १. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा / भाग २ / पृ० ७८० २. “निश्चयरत्नत्रयसाधक- व्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापात्रवसंवरकारणानि ज्ञातव्यानि । " बृहद्रव्यसंग्रह / ब्रह्मदेवटीका / गाथा ३५ ३ मोक्षमार्गप्रकाशक / अधिकार ७ / पृ० २०५ ४ " (तत्त्व) निर्णय का पुरुषार्थ करे तो भ्रम का कारण जो मोहकर्म, उसके भी उपशमादिक हों, तब भ्रम दूर हो जाये, क्योंकि निर्णय करते हुये परिणामों की विशुद्धता होती है, उससे मोह के स्थिति - अनुभाग घटते हैं। " Jain Education International मोक्षमार्गप्रकाशक/अधिकार ७ / पृ० ३१२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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