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साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ । १७५
सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है और उस समय यदि वह शुद्धोपयोग का प्रयत्न करे, तो शीघ्र हो सकता है। शुभोपयोग शुद्धोपयोग की क्षमता का जनक इसलिए है कि वह शुद्धोपयोग के प्रबलतम बाधक अशुभोपयोग का निरोध करता है। अतः शुभोपयोग शुद्धोपयोग की क्षमता का जनक होने से उसका साधक है। रोग की अल्पता से रोगनिवृत्ति सुकर
इसमें सन्देह नहीं कि शुभोपयोग आत्मा की शुद्धावस्था नहीं है, मन्दराग की अवस्था है। अत: जैसे अल्परोग नीरोगता का जनक नहीं है, वैसे ही मन्दराग वीतरागता का जनक नहीं है। किन्तु, जैसे रोग की अल्पता होने पर रोगनिवृत्ति सुसाध्य हो जाती है, वैसे ही राग की मन्दता होने पर वीतरागता सुसाध्य हो जाती
यह प्रत्येक के अनुभव की बात है कि अधिक मैले वस्त्र की अपेक्षा कम मैले वस्त्र को शीघ्र साफ किया जा सकता है, अधिक अज्ञानी की अपेक्षा कम अज्ञानी को सरलता से समझाया जा सकता है और मोटी बेड़ी की अपेक्षा पतली बेड़ी को आसानी से तोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार मन्दराग की अवस्था से वीतरागता में पहुँचना भी सुकर हो जाता है। इस रीति से व्यवहारधर्म निश्चयधर्म के सामर्थ्य का जनक है, अत: दोनों में साध्य-साधकभाव है। ग्रहण और त्याग दोनों आवश्यक
उपर्युक्त तथ्य के प्रकाश में यह निर्विवाद है कि शुभोपयोग करते-करते ही शुद्धोपयोग नहीं होता। यदि ऐसा हो, तो अशुभोपयोग करते-करते ही शुभोपयोग होने का प्रसंग उपस्थित होगा। दोनों की प्रकृति सर्वथा भिन्न-भिन्न है। भिन्न कारण से भिन्न कार्य उत्पन्न नहीं होता। शुद्धोपयोग के उपादान से ही शुद्धोपयोग उत्पन्न हो सकता है। अत: शुद्धोपयोग के लिये शुभोपयोग छोड़ना आवश्यक है। किन्तु, छोड़ने के पहले ग्रहण करना भी आवश्यक है, क्योंकि उससे शुद्धोपयोग का अवलम्बन करने की क्षमता आती है। जहाँ यह सत्य है कि निचली कक्षा को छोड़े बिना ऊँची कक्षा में प्रवेश नहीं किया जा सकता, वहाँ यह भी सत्य है कि निम्न कक्षा के पाठ्यक्रम को उत्तीर्ण किये बिना उच्च कक्षा में प्रवेश की पात्रता नहीं आती। इसी प्रकार जहाँ यह सत्य है कि शुभोपयोग को छोड़े बिना शुद्धोपयोग का अवलम्बन सम्भव नहीं है, वहाँ यह भी सत्य है कि शुभोपयोग की अवस्था प्राप्त किये बिना शुद्धोपयोग के अवलम्बन की क्षमता आना सम्भव नहीं है।
ग्रहण करना और छोड़ना दोनों आवश्यक हैं। गन्तव्य तक पहुँचने के लिये
१. मोक्षमार्गप्रकाशक/अधिकार ७/पृ० २५६
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