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________________ १६४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन श्रुतज्ञान न होने देने में इन्द्रियों का भोगव्यसन प्रबल बाह्य निमित्त है।' भक्ति की मनोवैज्ञानिकता इन्द्रियसंयम द्वारा इन्द्रियों के भोगव्यसनरूप निमित्त को दूर कर देने पर भी इन्द्रियविषयों के दर्शन, चिन्तन, स्मरण आदि के निमित्त से तीव्ररागादि की उत्पत्ति सम्भव है। अत: इन निमित्तों को टालने के लिए पञ्चपरमेष्ठी के भजनपूजन, गुणकीर्तन, चरितश्रवण आदि शुभ निमित्तों का अवलम्बन अत्यन्त आवश्यक होता है। मंगलमय आत्माओं के मंगलमय गुणों के चिन्तन-स्मरण के निमित्त से तीव्र कषायोदय के निमित्त टल जाते हैं और सत्ता में स्थित शुभाशुभ कर्मों की स्थिति और अशुभ कर्मों का अनुभाग हीन हो जाता है, जिससे आगे भी मन्दकषाय का ही उदय होता है। पंडित टोडरमल जी लिखते हैं - ___ "भक्ति करने से कषाय मन्द होती है। अरहंतादि के आकार का अवलोकन करना, स्वरूप का विचार करना, वचन सुनना, निकटवर्ती होना या उनके अनुसार प्रवर्तन करना इत्यादि कार्य तत्काल निमित्त बनकर रागादि को हीन करते हैं।" जैसे इन्द्रियविषय एवं असत्पुरुषों का संसर्ग तीव्र कषाय के उदय का निमित्त बनता है, वैसे ही पञ्चपरमेष्ठीरूप प्रशस्तविषयों के दर्शनादि मन्दकषायरूप विशुद्ध परिणामों के निमित्त बनते हैं। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने बतलाया है कि जिनदेव, जिनमन्दिर, जिनागम, जिनागम के धारक, सम्यक् तप और सम्यक् तप के धारक, ये छह आयतन सम्यक्त्व प्रकृति के उदय के निमित्त हैं और इनसे विपरीत अर्थात् कुदेवादि छह आयतन मिथ्यात्व प्रकृति के उदय के निमित्त हैं। भक्ति की उपयोगिता बतलाते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - "भक्तिरूप प्रशस्तराग का अवलम्बन पुण्यबन्ध का स्थूल लक्ष्य रखनेवाले भक्तिप्रधान अज्ञानी ( मिथ्यादृष्टि ) करते हैं। कभी-कभी अनुचित विषयों में रागप्रवृत्ति रोकने के लिए अथवा तीव्रकषायोदय का निरोध करने हेतु शुद्धोपयोग से च्युत ज्ञानी भी करते हैं।" भक्तिभाव से भरे मन में अशुभभावों के लिए अवकाश कहाँ से मिल सकता है? इस तथ्य का निरूपण कवि रहीम ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में किया है - १. गोम्मटसारकर्मकाण्ड/गाथा ७० २. मोक्षमार्गप्रकाशक/पृ० २९० ३. वही/पृ० ७ ४. गोम्मटसारकर्मकाण्ड/गाथा ७४ ५. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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