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________________ अष्टम अध्याय निश्चय-व्यवहारमोक्षमार्गों में साध्यसाधकभाव पूर्व अध्याय में प्रसंगवश निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग के साध्यसाधकभाव-सम्बन्ध का निर्देश किया गया है। प्रस्तुत अध्याय में उसकी विस्तार से मीमांसा की जा रही है। आचार्य अमृतचन्द्र 'तत्त्वार्थसार' में लिखते हैं - निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गों द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूप: स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ।।' - मोक्षमार्ग के दो पक्ष हैं : निश्चय और व्यवहार। इनमें निश्चयमोक्षमार्ग साध्य हैं और व्यवहारमोक्षमार्ग उसका साधक। ___ इस कारिका में आचार्यश्री ने निश्चयमोक्षमार्ग को साध्य बतलाया है। साध्य का अर्थ है ‘साधयितुं योग्यः' - जो सिद्ध करने योग्य हो। अभिप्राय यह है कि समस्त शुभाशुभ परिणामों के अभाव में आत्मा की जो शुद्धोपयोगरूप अवस्था होती है वह निश्चयमोक्षमार्ग कहलाती है। यह अवस्था सम्यक्त्वपूर्वक अहिंसादि महाव्रतों, अनशनादि तपों तथा उत्तमक्षमादि धर्मों में परिनिष्ठित होने पर अर्थात् षष्ठ गुणस्थान में पहुँचने के बाद ही प्राप्त हो पाती है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है सुविदिदपयत्थसुत्तो संजम तव संजुदो विगदरागो । समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।। - जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का सम्यग्ज्ञाता, संयम और तप से संयुत, विगतराग तथा सुख-दुख में समरूप श्रमण शुद्धोपयोगी होता है। 'श्रमण' शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि मुनि-अवस्था में पहुंचे हुए साधक को ही शुद्धोपयोग सम्भव है। श्री नेमिचन्द्राचार्य का भी कथन है - तवसुदवदवं चेदा झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा । । तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होइ ।।' १. तत्त्वार्थसार/उपसंहार/श्लोक २ २. “योऽसौ समस्तशुभाशुभसङ्कल्पविकल्परहितो जीवस्य शुद्धभाव: स एव निश्चयरत्न त्रयात्मको मोक्षमार्गः।" परमात्मप्रकाश टीका २/६९ ३. प्रवचनसार, १/१४ ४. बृहद्र्व्य संग्रह/गाथा ५७ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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