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निश्चय और व्यवहार की परस्परसापेक्षता / १४७
निषिद्ध होना नहीं है, अपितु व्यवहारनय के विषय का निश्चयनय के विषयरूप में निषिद्ध होना है, व्यवहारनय के विषयरूप में तो निश्चयनय उसे स्वीकार करता ही है। सर्वथा निषिद्ध होने पर निश्चयैकान्त का प्रसंग आएगा, जिससे निश्चयनय भी मिथ्या हो जाएगा। व्यवहारनय का निषेध भी अज्ञानियों का अनादिरूढ़ व्यवहार होने के कारण नहीं, बल्कि उसके समान पराश्रित होने के कारण किया गया है।'
इन कारणों से सिद्ध है कि निश्चयनय असद्भूतव्यवहारनय-सापेक्ष है।
उक्त विद्वान, स्वयं अन्यत्र लिखते हैं – “प्रत्येक नय सापेक्ष होता है इसका तो हमने कहीं निषेध किया ही नहीं। और वे यह भी मानते हैं कि सापेक्षत्व का अर्थ 'उपेक्षा' ( स्वीकार करते हुए भी प्रतिपादन न करना ) है।
अब उक्त विद्वानों के कथन में कितना विरोध है, यह देखने योग्य है। पूर्व में वे कहते हैं – निश्चयनय और असद्भूतव्यवहारनय में सापेक्षता किसी भी अवस्था में नहीं बन सकती। यहाँ कहते हैं -- प्रत्येक नय सापेक्ष होता है, इसका तो हमने कहीं निषेध किया ही नहीं।
अस्तु। उपर्युक्त कथन से उक्त विद्वान् स्वयं स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक नय नयान्तर सापेक्ष होता है, सापेक्षता से ही प्रत्येक नय सम्यक् होता है, निरपेक्ष नय मिथ्या है और सापेक्षता का अर्थ प्रतिपक्षी नय के विषय का निषेध न कर उसके प्रति उपेक्षाभाव ( गौणभाव ) रखना मात्र है। इस प्रकार उनके ही वचनों से सिद्ध हो जाता है कि निश्चयनय असद्भूतव्यवहारनय के विषय का निषेध नहीं करता, अपितु उसके प्रति उपेक्षा मात्र ( न आदान, न निराकृति ) रखता है, इसलिए वह असद्भूतव्यवहारनय-सापेक्ष है।
१. "..." व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात्।"
समयसार/आत्मख्याति/गाथा २७२ २. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा/भाग २, पृ० ८०२-८०३ ३. वही २/८०२, “निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृतिः, सापेक्षत्वमुपेक्षा।"
आप्तमीमांसाभाष्य/कारिका १०८
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