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________________ सद्भूतव्यवहारनय / १२१ इस प्रकार षष्ठीव्यपदेशपूर्वक ( स्वस्वामिभावनिर्देशपूर्वक ) ज्ञानी और दर्शनज्ञानादि गुणों को एक-दूसरे से पृथक् करके वर्णित किया जाता है। ऐसा वर्णन व्यवहारनय से संगत होता है, निश्चयनय से नहीं। निश्चयनय से न तो ज्ञान ज्ञानी से पृथक् है, न दर्शन, न चारित्र। ये सब उससे अभिन्न हैं, इसलिए वह शुद्ध ( भिन्नद्रव्यसंयोगरहित एकवस्तुरूप ) ज्ञायक है। आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त गाथा के भाव को इस प्रकार स्पष्ट किया है - - "जो शिष्य अनन्तधर्मात्मक अखण्डवस्तु से अपरिचित होते हैं, उन्हें गुरु उसके कुछ धर्मों के द्वारा उसका बोध कराते हैं। तब वे 'दर्शन, ज्ञान और चारित्र जिसके धर्म हैं, उसे आत्मा कहते हैं', ऐसे षष्ठीव्यपदेशात्मक वाक्य का प्रयोग करते हैं, जिसमें आत्मा और उसके दर्शन-ज्ञानादि धर्म भिन्न वस्तुओं के रूप में वर्णित होते हैं। इस प्रकार केवल वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन के लिये ही अभिन्न धर्म-धर्मी को भिन्न पदार्थों के रूप में वर्णित किया जाता है। इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वे वास्तव में भिन्न हैं। चूँकि एकवस्तुभूत धर्म-धर्मी में यह षष्ठीव्यपदेश संज्ञादिभेद पर आश्रित है, इसलिए संज्ञादिभेद के आधार पर यह भेदपूर्वक कथन सद्भूतव्यवहारनय से संगत होता है। इसी प्रकार 'आत्मा' शब्द का अर्थ प्रतिपादित करने के लिए एकवस्तुभूत आत्मा और दर्शनज्ञानचारित्र को संज्ञादिभेद के आधार पर भिन्नतया ग्रहण कर कर्ताकर्मरूप कारकव्यपदेश द्वारा ‘दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मा'' ( जो दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप परिणमन करता है वह आत्मा है ), इस प्रकार वर्णित किया जाता है। यह भेदात्मक वर्णन भी संज्ञादिभेदहेतुक होने से सद्भूतव्यवहारनय से संगत है। कहीं गुण और गुणी को संज्ञादि भेद के आधार पर विशेषण-विशेष्य के रूप में वर्णित कर गुणी के स्वरूप का बोध कराया जाता है। उदाहरणार्थ “आत्मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्वभावः।"३ - आत्मा ज्ञान, दर्शन और सुखस्वभाववाला है। "अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदरूवी।" १. “यतो ह्यनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभिः कैश्चिद्धमैस्तमनुशासतां सूरीणां धर्मधर्मिणां स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः।" । समयसार/आत्मख्याति/गाथा ७ २. वही/गाथा ८ ३. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा २९ ४. समयसार/गाथा ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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