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________________ १२० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन “यथा च काञ्चनस्य स्निग्धपीतगुरुत्वादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषं काञ्चनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।" - जैसे स्वर्ण को चिकनेपन, पीलेपन और भारीपन की पर्यायों के द्वारा अनुभव करने पर उसका विशेषत्व भूतार्थ सिद्ध होता है, किन्तु जिसमें ये समस्त विशेष निमग्न होते हैं उस सामान्यभूत स्वभाव के द्वारा अनुभव करने पर अभूतार्थ ठहरता है, वैसे ही आत्मा को जब ज्ञानदर्शनादि पर्यायों के द्वारा अनुभव किया जाता है, तब उसका विशेषत्व भूतार्थ सिद्ध होता है, किन्तु जब इन समस्त विशेषों को अपने में समाये रखनेवाले चैतन्यरूप स्वभाव-सामान्य के द्वारा अनुभव किया जाता है, तब विशेषत्व असत्य हो जाता है। निष्कर्ष यह कि वस्तु का विशिष्टरूप संज्ञादिभेद पर अवलम्बित होने से बाह्यभेदावलम्बिनी सद्भूतव्यवहारदृष्टि से देखने पर सत्य सिद्ध होता है। वस्तु-अवबोधनार्थ षष्ठी आदि व्यपदेश भिन्न वस्तुओं या एक वस्तु के भिन्न रूपों में 'यह इसका है' इस तरह स्व-स्वामिभाव का निर्देश करना षष्ठी-व्यपदेश कहलाता है तथा 'यह इस रूप से परिणमित होता है' अथवा 'यह इसका कर्ता है और यह इसका कर्म' इस प्रकार से कर्ताकर्मादिभाव का निर्देश करना कारक-व्यपदेश कहलाता है। इनके द्वारा वस्तु की पहचान कराई जाती है, उसे परिभाषित या विवेचित किया जाता है। जैसे 'दर्शन, ज्ञान, चारित्र आत्मा के गुण हैं', इस वाक्य में आत्मा को स्वामी के रूप में तथा दर्शनादि को उसके स्व के रूप में वर्णित किया गया है, अत: षष्ठी-व्यपदेश है। इस षष्ठी-विभक्तियुक्त वाक्य से यह बोध होता है कि दर्शनज्ञानादिशक्तियोंवाला पदार्थ आत्मा कहलाता है। आत्मा और दर्शनज्ञानादि गुणों का इस प्रकार भेदपूर्वक ( भिन्न पदार्थों की तरह ) कथन संज्ञादिभेद पर आश्रित होता है, इसलिए संज्ञादिभेदावलम्बी सद्भूतव्यवहारनय से घटित होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इसे निम्नलिखित गाथा में स्पष्ट किया है - ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं । णवि णाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ।। - भावार्थ यह है कि 'ज्ञानी ( आत्मा ) के दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं', १. समयसार/आत्मख्याति/गाथा १४ २. वही/गाथा ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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