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उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय / ९५ के स्वातन्त्र्य का द्योतन करने के लिए जिनेन्द्रदेव ने उसे उपचार से पुद्गल कर्मों के कर्ता की संज्ञा दी है, जिससे जीव अपने बन्ध और मोक्ष में स्वयं को उत्तरदायी अनुभव कर कर्मबन्धन से बचने के लिए शुभाशुभपरिणामों से निवृत्त होने का पौरुष करे। पुद्गल द्रव्य के कर्मरूपपरिणमन में प्रयोजक होने की अपेक्षा जीव पुद्गलकर्मों का कर्ता है ही। इसीलिए आचार्य अमृतचन्द्र ने जीव को परद्रव्य का निमित्तरूपेण कर्ता कहा है। विषयभोक्तत्व का उपपादन
पौद्गलिक इन्द्रियविषयों के साथ चेतन आत्मा का संसर्ग ( तन्मयत्व ) नहीं हो सकता, अत: आत्मा परमार्थत: इन्द्रियविषयों का भोक्ता नहीं है। शरीर या इन्द्रियों के साथ जो विषयों का संसर्ग होता है उसके निमित्त से होनेवाले सुखदुःख का भी वह परमार्थत: अभोक्ता है, क्योंकि वे सुख-दुःख जीव की पुद्गलसंयुक्त अवस्था में ही उत्पन्न होते हैं, फलस्वरूप उनका भोक्ता अशुद्ध ( सोपाधिक ) जीव होता है।
किन्त जैसा कि पर्व में निरूपित किया गया है जीव और शरीर में कथंचित अभेद है, इसलिए जैसे शरीरघात से जीवघात घटित होता है वैसे ही शरीर के साथ विषयसम्पर्क होने से जीव के साथ विषयसम्पर्क घटित होता है। जैसे शरीर के छेदन-भेदन से आत्मा को पीड़ा के रूप में छेदन-भेदन का आस्वादन होता है वैसे ही इन्द्रियों के साथ विषयसंसर्ग होने पर जीव को सुख-दुःख के रूप में विषयों के रस का आस्वादन होता है। इसलिए भगवान् ने उपचार से जीव को विषयों के भोक्ता की संज्ञा दी है, और विषयों को भोग्य की। उदाहरणार्थ, निम्नलिखित वक्तव्यों में आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा सम्यग्दृष्टि जीव चेतन-अचेतन द्रव्यों का भोक्ता कहा गया है -
उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं ।
जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।।
- सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा चेतन, अचेतन तथा अन्य द्रव्यों का जो उपभोग करता है वह सब उसके लिए निर्जरा का निमित्त बनता है। १. “कत्ता, भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो।" नियमसार/गाथा १८ २. “तत्प्रयोजको हेतुश्च" ( कर्तुः प्रयोजको हेतुसंज्ञः कर्तृसंज्ञश्च स्यात् )।
अष्टाध्यायी, १/४/५५ ३. "अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तरौ।'
समयसार/आत्मख्याति/गाथा १०० ४. वही/गाथा १९३
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