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________________ ९४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन जिन परद्रव्यों का संयोग होता है, उनके साथ लौकिक सम्बन्ध का द्योतन करने के लिए जीव और परद्रव्यों में स्व-स्वामिसम्बन्ध का उपचार किया गया है। ऐसा करने पर ही निजदेह - परदेह, निजधन- परधन, स्वस्त्री- परस्त्री आदि का भेद निर्धारित होता है और इस भेद पर ही पाप-पुण्य, बन्ध-मोक्ष का अस्तित्व निर्भर है। जिनेन्द्रदेव ने इस प्रकार का भेद करके व्रत, दान, पाप, पुण्य आदि के लक्षण निर्धारित किये हैं । यदि स्वकीय-परकीय का भेद न किया जाय तो अशुचित्व भावना का जो 'स्वदेह और परदेह से विरक्त होकर आत्मस्वरूप में लीन रहना' लक्षण बतलाया गया है, वह असत्य हो जायेगा, ' 'स्वशरीरसंस्कारत्यागरूप ब्रह्मचर्यरक्षक भावना सत्य सिद्ध न होगी, परधनहरणरूप चोरी का पाप झूठा ठहरेगा, स्वदारसन्तोष और परदारनिवृत्तिरूप ब्रह्मचर्याणुव्रत' की सत्ता न रहेगी, तथा अपने और दूसरे के उपकार के लिए स्ववस्तुत्यागरूप दान का लक्षण घटित न होगा । फलस्वरूप पाप-पुण्य और बन्ध-मोक्ष की सारी व्यवस्था ही धराशायी हो जायेगी और मोक्षमार्ग का उपदेश निरर्थक हो जायेगा । अतः तीर्थप्रवृत्ति के निमित्त आत्मा और तत्संयुक्त परद्रव्यों में स्वस्वामिसम्बन्ध का उपचार अत्यन्त आवश्यक 1 १ २ बन्धमोक्ष में जीव- स्वातन्त्र्य का द्योतन ५ जीव के शुभाशुभ परिणाम पुद्गलद्रव्य के कर्मरूप परिणमन में प्रेरक हैं। जब वह शुभाशुभ परिणाम करता है तभी पुद्गलपरमाणु कर्म बनकर जीव से संश्लिष्ट होते हैं, अपने आप नहीं । इस प्रकार अपने को कर्मबद्ध करने में जीव स्वतन्त्र है । वह चाहे तो शुभाशुभ परिणामों का निरोधकर स्वयं को कर्मबन्धन से बचा सकता है और मोक्ष पा सकता है। स्वातन्त्र्य का भाव 'कर्ता' शब्द में गर्भित है । कहा भी गया है - 'स्वतन्त्रः कर्त्ता । " अतः बन्ध और मोक्ष के कार्य में जीव १. जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं । अप्पसरूवसुरत्तो २. " स्त्रीरागकथाश्रवण असुइत्ते भावणा तस्स ।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा / गाथा ८७ स्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च । " तत्त्वार्थसूत्र/सप्तम अध्याय / सूत्र ३८ ३. “ब्रह्मचर्यं स्वदारसन्तोषः परदारनिवृत्तिः, कस्यचित् सर्वस्त्रीनिवृत्तिः।” चारित्तपाहुड/श्रुतसागरटीका /गाथा २१ ४. “ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् । ” तत्त्वार्थसूत्र / सप्तम अध्याय / सूत्र ३८ ५. (क) “क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणाः पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति । " सर्वार्थसिद्धि / पञ्चम अध्याय / सूत्र १७ (ख) "जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरणामैः क्रियन्ते इति कर्माणि । " ६. अष्टाध्यायी १/२/४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only आप्तपरीक्षा / कारिका ११५ www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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