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________________ ८६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन और मोहरागादिशून्य दिखाई देता है, इसलिए निरुपाधिकपदार्थावलम्बी ( मूलपदार्थावलम्बी ) निश्चयनय पर आश्रित उपदेश से मोक्ष की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती। जब सोपाधिक अवस्था का अवलोकन करते हैं तभी जीव की कर्मबद्धता और मोहरागात्मक परिणति सत्य सिद्ध होती है। अत: सोपाधिकपदार्थावलम्बी असद्भूतव्यवहारनयसम्मत उपदेश से ही मोक्ष की आवश्यकता उपपन्न होती है। मोक्षमार्ग की साध्यता का उपपादन शुद्धोपयोग मोक्षमार्ग है। अशुभोपयोग उसके मार्ग की प्रबल बाधा है। वह शद्धोपयोग को असाध्य बनाता है। शुभोपयोग अशुभोपयोग का निरोध कर शुद्धोपयोग के मार्ग की बाधा दूर करता है, जिससे वह साध्य हो जाता है। शुभोपयोग जीवादि तत्वों के श्रद्धान, तत्त्वाभ्यास, अरहन्तादि की भक्ति, इन्द्रियविषयपरित्याग, जीव-रक्षा आदि परद्रव्याश्रित प्रवृत्ति से साध्य होता है। इस तरह परद्रव्य के साथ जीव का साध्यसाधक सम्बन्ध है। किन्तु मौलिकभेदावलम्बी निश्चयनय इस सम्बन्ध का निषेध करता है, जिससे साधन के निषेध से मोक्षमार्ग की साध्यता का भी निषेध हो जाता है। इस प्रकार निश्चयनयात्मक उपदेश से मोक्षमार्ग असाध्य सिद्ध होता है। किन्तु वह असाध्य नहीं है, साध्य ही है। बस इतना है कि उसकी साध्यता का उपपादन बाह्यसम्बन्धावलम्बी असद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश से होता है। सर्वज्ञत्व का उपपादन आत्मा और परद्रव्यों में तादात्म्य-सम्बन्ध न होने से मौलिकरूप से भेद है, अत: मौलिकभेदावलम्बी निश्चयनय उनमें ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध का भी निषेधक है। फलस्वरूप निश्चयनयात्मक उपदेश से केवली भगवान् सर्वज्ञ ( समस्त परद्रव्यों को जानने वाले ) भी सिद्ध नहीं होते। उनका सर्वज्ञ होना बाह्यसम्बन्धावलम्बी असद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश से सिद्ध होता है। धर्मादि द्रव्यों के लक्षण का उपपादन निश्चयनय परद्रव्यसम्बन्ध-प्रतिषेधक है, अत: तदाश्रित उपदेश से धर्म, अधर्म, आकाश और काल के लक्षण उपपत्र नहीं होते, क्योंकि उनके लक्षण परद्रव्यसम्बन्धात्मक हैं, जैसे धर्मद्रव्य का लक्षण है जीव और पुद्गल की गति का हेतु होना और अधर्मद्रव्य का लक्षण है उनकी स्थिति का निमित्त होना। निश्चयनयात्मक उपदेश से ज्ञानावरणादि कर्मों के लक्षण भी घटित नहीं होते, क्योंकि ये भी परद्रव्यसम्बन्धपरक हैं। उदाहरणार्थ, जीव के ज्ञानगुण को आवृत करना ज्ञानावरण का लक्षण है और दर्शन को आवृत करने वाला दर्शनावरण कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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