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________________ असद्भूतव्यवहारनय । ८५ - जो विवेकहीन पुरुष आत्मा और शरीर में सर्वथा भेद बतलाते हैं, उनके मत में शरीर के वध से हिंसा कैसे घटित होगी ? तात्पर्य यह कि जीव और शरीर में संश्लेषसम्बन्ध होने से उनमें जो एक विलक्षण अभेद है, उसे दर्शाने से ही लोग शरीर का धात करने में जीवघातरूप हिंसा मानेंगे। इसलिए संश्लेषसम्बन्धदर्शक व्यवहारनय से जीव के स्वरूप का प्रतिपादन करना अत्यन्त आवश्यक है। स्तेयादि के सद्भाव का उपपादन मौलिकभेदावलम्बी निश्चयनय पर आश्रित उपदेश से जैसे जीव और शरीर के संश्लेषसम्बन्ध एवं तन्निमित्तक अभेद का निषेध होता है, वैसे ही परद्रव्य के साथ आत्मा के संयोगसम्बन्ध का भी निषेध होता है। फलस्वरूप जीव के साथ पतिपत्नी, सन्तान, धन-सम्पत्ति आदि का संयोग सिद्ध न होने से उनमें स्वस्वामिभाव का उपचार नहीं किया जा सकता और उपचार के अभाव में स्वकीय और परकीय का भेद घटित न होने से परद्रव्यहरणरूप चोरी तथा परस्त्री-परपुरुषगमनरूप व्यभिचार ( अब्रह्म ) आदि के पाप भी असत् हो जाते हैं। इन पापों की सत्ता बाह्यसम्बन्धावलम्बी असद्भूतव्यवहारनय से उपदेश देने पर सिद्ध होती है, क्योंकि उसके द्वारा ही परद्रव्यों के साथ जीव का संयोगसम्बन्ध उपपन्न होता है। बन्धमोक्ष की प्रक्रिया का उपपादन अनादिबद्ध कर्मों के उदय से आत्मा मोहरागादिरूप परिणमित होता है। उससे नये कर्मों का बन्ध होता है। नये कर्म पुन: मोहरागादि के निमित्त बनते हैं। उनसे जीव फिर द्रव्यकर्मों के बन्धन में बंधता है। किन्तु जब वह सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमन करता है तब आत्मा के शुद्धभाव से नये कर्मपुद्गलों का आस्रव रुकता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है। इस रीति से जब आत्मा से संश्लिष्ट सभी पुद्गल कर्म पृथक् हो जाते हैं तब वह मुक्त हो जाता है। आत्मा और पुद्गल के निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध पर आश्रित बन्ध और मोक्ष की इस प्रक्रिया पर प्रकाश निश्चयनयात्मक उपदेश से नहीं पड़ सकता, क्योंकि निश्चयनय आत्मा और परद्रव्य के मौलिक भेद का अवलम्बन कर आत्मा का प्रतिपादन करता है। अत: उससे आत्मा और परद्रव्य का सर्वथा असम्बन्ध ही सिद्ध होता है। जब बाह्यसम्बन्धावलम्बी असद्भूतव्यवहारनय के आश्रय से उपदेश दिया जाता है तभी बन्ध और मोक्ष की उपर्युक्त प्रक्रिया उपपन्न होती है। मोक्ष की आवश्यकता का उपपादन जीव की निरुपाधिक अवस्था पर दृष्टिपात करने से वह कर्मों से अबद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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