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________________ ७४ । जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन परस्परवगाहरूप ( संश्लेष ) सम्बन्ध बतलाया है - एएहिं य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । ण य हुंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिको जम्हा ।।' - अर्थात् इन ( पुद्गलद्रव्य के परिणामों ) के साथ आत्मा का सम्बन्ध नीर-क्षीर के सम्बन्ध के समान परस्परावगाहरूप समझना चाहिए। आत्मा चेतन है और ये अचेतन, इसलिए इनके साथ आत्मा का तादात्म्य सम्बन्ध न होने से ये आत्मा के नहीं हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि आत्मा और शरीर परस्परावगाढरूप से अवस्थित हैं - परस्परावगाढावस्थायामात्मशरीरयोः। निम्नलिखित गाथा में आत्मा और पुद्गलकर्म के परस्पर संश्लेष का कथन किया गया है - आदा कम्ममलिमसो परिणामं लहदि कम्मसंजुत्तं । तत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो ।। - आत्मा अनादि से पुद्गलकर्मों से मलिन है, इस कारण रागादिरूप से परिणमन करता है। इससे नवीन कर्मपुद्गल आकर आत्मा से संश्लिष्ट हो जाते हैं। इसलिए रागादिपरिणाम ही कर्म है। आत्मा और पुद्गलकर्मों का संश्लेष ही बन्ध शब्द से प्ररूपित किया गया सपदेसो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं । कम्मरजेहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ।। - लोकाकाशप्रमित असंख्येय प्रदेशोंवाला होने से आत्मा मोहरागद्वेष से कषायित होकर कर्मरज से संश्लिष्ट हो जाता है, उसे ही आगम में बन्ध कहा गया आचार्य अमृतचन्द्र ने भी ऐसा ही कहा है - "एवं जीवपुद्गलयोः परस्परावगाहलक्षणसम्बन्धात्मा बन्ध: सिद्धयेत्।"५ १. समयसार/गाथा, ५७ २. वही, आत्मख्याति, गाथा २७ ३. प्रवचनसार, २/२९ ४. वही, २/९६ ५. समयसार/आत्मख्याति/गाथा ६९-७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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