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________________ चतुर्थ सर्ग १२३ हे सखि ! कहाँ तो विषयसुख से विमुख वह श्रोनेमि और कहाँ विषयसुख - लोलुप तुम ? कहाँ वह अचेतन मेघ और कहाँ कुशल वक्ताओं द्वारा कहा जाने वाला तुम्हारा सन्देश ? किसके सामने क्या कह रही हो - यह भी तुम्हें ज्ञात नहीं । हे सखि ! बुद्धिमती होते हुए भी यह तुम्हारा दोष नहीं है यह तो स्वभाव परिवर्तन के मूल कारण मोह का ही दोष है अर्थात् तुम मोहवश ही ऐसा कर रहो हो ||३८|| श्रीमान्नेमिर्व्यजयत महामोहमल्लं तदेष त्वां तत्पत्नों सखि ! मनुम हे बाघते बद्धवेरः । कि त्वेवं ते यदुकुलमणेर्वीरपत्न्या विसोढुं नेतन्न्याय्यं तदिममधुना बोधशस्त्रेण हिन्दि ॥ ३९ ॥ श्रीमान्नेमि ० हे सखि ! राजीमति ! वयम् इति मनुमहे इति मन्यामहे । इतीति किम्-यत् यस्मात् हेतोः श्रीमान्नेमिः महामोहमल्लं व्यजयत जयति स्म, तत् तस्मात् कारणात् एषः महामोहमल्लं बद्धवैरः सन् तत्पत्नों त्वां बाघते पीडयति, किन्तु पुनः हे सखि ! हे राजीमति ! ते तव एवम् अमुना प्रकारेण निश्चत - न्याम्बुदमुखसन्देशक प्रेषणलक्षणेन एतं महामोहमल्लं विसोढ़ सहितुं न न्याय्यं न युक्तम् । किरुपायाः ते - यदुकुलमणेः यादववंशस्य मस्तकमणेः, तथा वीरपत्न्याः । तत् तस्मात् कारणात् त्वम् इमं महामोहमल्लं अधुना बोधशस्त्रेण हिन्द्धि जहि ||३९|| हे सखि ! ऐसा लग रहा है कि श्री नेमि ने मोहरूपी महामल्ल को जीत लिया है, इसीलिए वह (मोह) उनसे (श्री नेमि से) क्रुद्ध होकर उनकी पत्नी तुम्हें ही पीड़ित कर रहा है । यदुकुल शिरोर्माण की वीर पत्नी होकर तुम्हारे लिए इस मोह जनित कामपीड़ा को सहना उचित नहीं है अतः अब तुम भो सम्यग्ज्ञानरूपी शस्त्र से महामोह रूपी मल्लको मार डालो ||३९|| रागाम्भोधौ ललितललनाचाटुवाग्भङ्गिभिर्यः संप्लाव्येत प्रतनुगरिमा स क्षमाभूद्गणोऽन्यः । औन्नत्यं तत्तदचलगुरुश्चैष माध्यस्थ्यमीशो धत्ते येन स्फुटवसुममुं स्प्रष्टुमप्यक्षमास्ताः ॥ ४० ॥ ० रागाम्भोधी • हे राजीमति ! यः क्षमाभूद्गणः यतिसमूहः ललितललनाचा-टुवाम्भङ्गिभिः सविलासस्त्रीचाटुवाग्विच्छित्तिभिः रागाम्भोषो मोहसमुद्रे मध्ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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