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________________ चतुर्थ संग १०३ हे मेघ ! अत्यन्त प्रबल एवं भयङ्कर विरहपीड़ा को भुलाने वाली अतिदीर्घ मूर्छा,ने मेरे प्राण न निकल जायें इस आशंका से भीत सखी की तरह ज्योंही मुझे आलिङ्गन करना चाहा त्योंही मेरी सखियों ने जल सेचनादि द्वारा उस बेचारो को इस भय से भगा दिया कि हमारी प्रिय सखी की कोई और सखी न हो जाए अर्थात् राजीमती ज्योंही मूच्छित हुई सखियों ने जल सेचनादि से मूर्छा को दूर कर दिया ॥५॥ स्यक्तैवातः परमचिकिलक्लिन्नवासोवदेषा हा कि भावि ? स्फुटसि हृदय । द्वैधमापद्य किं न । इंदृचिन्ताकुलतममनस्तापबाष्पायितास्यो घातानाम्बुळजनिषि ततोऽस्तोकशोकोदकुम्भः ॥६॥ त्यतैवातः • हे जलघर ! ततः मूर्छागमनानन्तरम् अहं अस्तोकशोकोदकुम्भः अस्तोकः प्रचुरो शोकः स एव उदकं जलं तस्य कुम्भो घटः व्यजनिषि जाता । कि रूपो अस्तोकशोकोदकुम्भ:--दिकचिन्ताकुलतममनस्तापवाष्पायितास्योचाताबाम्बुः ईदृक् चिन्तया आकुलतमम् अत्यर्थम् आकुलं यत् मनः तस्य यः तापः तेन वाष्पायितं उद्वान्तं वाष्पं यद् आस्यं मुखं तस्मात् उद्यातं निर्गतं अस्राम्बु पानीयं यस्मिन सः । ईदक चिन्ता का ? इत्याह--एषा अहम् अतः परम् अद्य पश्चात् मचिकिलक्लिन्नवासावत् कर्दमलिप्तवस्त्रवत् त्यक्ता एव मुक्ता एव । हा इति खेदे कि भावि कि भविष्यति । हे हृदय ! त्वं द्वेषम् मापद्य द्विधाभावं प्राप्य किन स्फुटसि ॥६॥ कीचड़ लगे हुए वस्त्र की तरह मैं श्री नेमि के द्वारा त्याग दी गई हूँ अतः हे हृदय तुम दो टुकड़े क्यों नहीं हो जाते हो? पता नहीं अब क्या होगा? इस चिन्ता से सन्तप्त मन के ताप से मेरा मुंह गरम-गरम श्वासों तथा आंसूओं की धाराओं से भर गया और तब मैं अपार शोक-जल से पूर्ण कुम्भ की तरह हो गई ॥६॥ प्राग्निर्दग्धं दिनदिननवत्तीववर्षेजशुष्मप्रख्यासौख्यैर्जगदिनजगज्जीवनापानपानम् । सम्प्रत्युष्णोच्छ्वसितवशतो बाष्पधूमायमानं स्फोटं स्फोट हृदयमिदकं चूर्णखण्डीयते स्म ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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