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________________ द्वितीय सर्ग ४७ परा-नर्मकर्माणि विन्दुः जानती च पुनः हे मेघ पौष्पापीडं पुष्पमुकुटं अर्थात् नेमेः शिरसि व्यधित न्यस्तवती । कीदृशी परा, उत्प्रेक्ष्यते-वासरे दिवसे एवंविधं व्योम संदर्शयन्तीव प्रेक्ष्ययन्तीव । किरूपं व्योम--तारतारासारं ताराभिः मनोज्ञाभिः ताराभिस्तारिकाभिःसारमुत्कृष्टं यत्तत् तथा गर्भस्थितशशधरं मध्यस्थितचन्द्रम्।।२०।। एक अन्य कृष्ण पत्नी ने नर्मकर्म की पण्डिता थी-चन्दन रस के नये नये लवों से श्रोनेमि के सुन्दर शरीर पर विन्दुविन्यास पूर्वक पत्रवल्ली को रचना की । फिर उनके सिर पर फूलों के मुकुट को रखकर दिन में ही चन्द्र एवं ताराओं से युक्त, आकाश को दिखलाने लगी अर्थात् श्रीनेमि का शरीर श्याम वर्ण होने से आकाश तुल्य था, पत्रावली ताराओं के सदृश थी तथा फलों का मुकुट चन्द्रमा की तरह लगता था ॥ २० ।। अन्या लोकोत्तर ! तनुमता रागपाशेन बद्धो मोक्षं गासे कथमिति ? मितं सस्मितं भाषमाणा । व्यक्तं रक्तोत्पलविरचितेनैव दाम्ना कटोरे काञ्चीव्याजात्प्रकृतिरिव तं चेतनेशं बबन्ध ॥ २१ ॥ अन्या लोकोत्तर ० हे जलधर अन्या काचित् विष्णुपत्नी तं श्रीनेमिनं काञ्चोव्याजात् मेखलामिषात् व्यक्तं स्पष्टं यथा भवति तथा रक्तोत्पलविरचितेनैव रक्तपद्मग्रथितेनैव दाम्ना मालया कटीरे प्रदेशे बबन्ध । किंरूपा अन्यामितं स्तोकं सस्मितं सहास्यं यथा भवति तथा इति भाषमाणा इतीति किं हे लोकोत्तर हे सर्वोत्कृष्ट हे श्रीनेमिन् त्वं तनुमता मूत्तिमता रागपाशेन बद्धः सन् मोक्षं कथं गासे कथं गच्छसि । क इव--प्रकृतिरिव यथा प्रकृतिः कर्मव्यापारः चेतनेशं आत्मानं बध्नाति ।। २१॥ एक दूसरी कृष्ण की पत्नी ने हँसते हुए संक्षेप में यह कहते हुए कि -हे लोकोत्तर! तुम मूर्तिमान् रागपाश से बँधे होने पर मोक्ष को कैसे प्राप्त करोगे?-लाल कमलों की माला को मेखला (करधनी) के बहाने श्रीनेमि के कटिप्रदेश में ऐसे बाँध दिया जैसे प्रकृति आत्मा को बाँध लेती है ।। २१ ॥ काचिद्वामा जलद ! पिदधे चन्दनस्यन्दसिक्तैः पंक्तिन्यस्तैः सरसकुसुमैर्दक्षमुख्यस्य वक्षः । कामोन्मुक्तैरिव जगदुरो विध्यमानैरखण्डः काण्डर्भेत्तु तदल मनलभूष्णुभावाबहिःस्थैः ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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