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१४४ : जैनमेघदूतम् दिया है कि उपमान और उपमेय के भेद होने पर भी उन दोनों का एक समान धर्म से सम्बन्ध उपमा कहलाता है--
साधर्म्यमुपमा भेदे।। आचार्य मेरुतुङ्ग ने उपमा अलङ्कार का अपने काव्य में यथाविधि निरूपण किया है। उपमा-निरूपण में आचार्यश्री सिद्धहस्त प्रतीत होते हैं, क्योंकि उन्होंने सृष्टिपदार्थीय और व्यावहारिक उपमाओं के साथ ही जैनमेघदूतम् में आध्यात्मिक, शास्त्रीय एवं दार्शनिक उपमाएँ भी प्रस्तुत की हैं । यथा
दान दत्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः ।
पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वीचकार ॥ यहाँ सुरतरुरिव अर्थात् कल्पवृक्ष के समान श्रीनेमि को बतलाया गया है, अतः सुरतरु एवं श्रीने मि में साधर्म्यता स्थापित होने के कारण इस श्लोकार्द्ध में उपमा अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है।
हेतोः कस्मादहिरिव तदाऽऽसचिनोमप्यमुत्र
न्मांनिर्मोकत्वचमिव लघुज्ञोऽप्यसौ तन्न जाने ॥ यहाँ पर निर्मोकत्वचमिव अर्थात् सर्प की केंचुल से राजीमती की साधर्म्यता स्थापित किये जाने के कारण उपमा अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने काव्य में अनेक दार्शनिक उपमाएँ भी प्रस्तुत की हैं, उनमें से एक दार्शनिकतापूर्ण उपमा प्रस्तुत श्लोक में देखी जा सकती है
अन्या लोकोत्तर ! तनुमता रागपाशेन बद्धो मोक्षं गासे कामति ? मितं सस्मितं भाषमाणा। व्यक्तं रक्तोत्पलविरचितेनैव दाम्ना कटोरे
काञ्चीव्याजात्प्रकृतिरिव तं चेतनेशं बबन्ध ॥ यहाँ पर कवि ने कितनी सुन्दर दार्शनिक उपमा प्रस्तुत की है कि जिस प्रकार प्रकृति आत्मा को बाँध लेती है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण की पत्नी ने उस माला को श्रीनेमि के कटिप्रदेश में बाँध दिया। १. काव्यप्रकाश, १०/८७ ॥ २. जैनमेघदूतम्, १/१ (उत्तरार्ध)। ३. वही, १/७ (पूर्वार्ध)। ४. वही, २/२१ ।
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