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परिचय अपनी रचनाओं में दिया है तथापि भारतीय साहित्य और संस्कृति की अनागता वाली प्रवृत्ति के कारण अधिकांश कवि और रचनाकार अपना, अपने परिवार, गुरु-परम्परा, परिवेश, अपने वैदृष्य और वैभव की महत्ता का संकेत मात्र देते रहे हैं। स्वयं राजशेखर की जीवनी के सम्बन्ध में आज तक बहुत कम लिखा हुआ प्राप्त होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में उनकी जीवनी एवं कृतित्व पर प्रकाश डालने का सर्वप्रथम एवं स्तुत्य प्रयास किया गया है।
यद्यपि १९३५ ई० में जिनविजय मुनि ने कहा था कि ऐतिहासिक दृष्टि से वङ्कचूल की कथा वैसी ही अज्ञात है, जैसी रत्नश्रावक की, तथापि तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत पुस्तक में वङ्कचूल और रत्नश्रावक का समीकरण किया गया है और इन दोनों प्रबन्धों की ऐतिहासिकता स्थापित की गई है।
प्रबन्धकोश में समकालीन तथ्यों को प्रस्तुत करने की भरसक चेष्टा की गई है। ऐसा प्रयास और साहस राजशेखर के पूर्व के किसी भी प्रबन्ध-ग्रन्थ में यहाँ तक कि प्रबन्धचिन्तामणि में भी नहीं दिखाई देता है। राजशेखर ने प्रबन्धकोश में न केवल प्रबन्ध की परिभाषा दी, अपितु उसने इतिहास को, जो अब तक केवल युद्धों और राजसभाओं तक सीमित था, सामान्यजन के धरातल पर ला खड़ा कर दिया। राजशेखर के लेखन के तीन क्षेत्र थे, यथा-(१) साहित्य, ( २ ) इतिहास और (३) दर्शन, जिसमें उसने अपनी कल्पना, स्मृति
और बुद्धि का क्रमशः सन्तुलित उपयोग किया था, इसलिए उसने इतिहास को स्मृति के अलावा परम्पराओं, अनुश्रुतियों और चक्षुदशियों पर भी आधारित किया था। इस प्रकार राजशेखर ने इतिहास को साहित्य के घेरे से बाहर किया और उसे स्वतन्त्र शास्त्र का दर्जा प्रदान किया तथा उसने इतिहास-लेखन को इतिहास-दर्शन के स्रोतों, साक्ष्यों, परम्पराओं, कारणत्व एवं कालक्रम पर आधारित किया। प्रस्तुत कृति में इतिहास-दर्शन से सम्बन्धित इन सभी मुद्दों पर सम्यक् रूप से विचार किया गया है। .. ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ के ऊपर धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टियों से श्लाघनीय कार्य हो चुके हैं किन्तु ऐतिहासिक मानदण्डों की दृष्टि से
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