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भूमिका
कुछ वर्ष पूर्व मैंने जयपुर की प्राकृत भारती अकादमी द्वारा इस प्रन्थ का प्रकाशन हो, इस हेतु संतुस्ति की थी। वहाँ की प्रकाशन समिति ने मेरी संस्तुति पर अपनी स्वीकृति प्रदान की। साथ ही अकादमी के माननीय निदेशक महोपाध्याय श्री विनयसागर जी ने यह आग्रह भी किया कि प्रस्तुत ग्रन्थ का मुद्रण-कार्य मेरे ही निर्देशन में हो और भूमिका भी मैं ही लिख, तो मैं उनके इस आग्रह को भी टाल नहीं सका। मुद्रण का कार्य तो नया संसार प्रेस और लेखक डॉ० प्रवेश भारद्वाज के सहयोग से पूरा हो गया किन्तु भूमिका लिखने का कार्य मेरी व्यस्तताओं के कारण विलम्ब से हो सका। फिर भी ग्रन्थ के सन्दर्भ में अपने कुछ विचार-बिन्दु प्रस्तुत करने में गौरब का अनुभव कर रहा हूँ। ___ अकादमी द्वारा प्रकाशित महत्वपूर्ण ग्रन्थों की शृंखला में "प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन" नामक इस शोध-प्रबन्ध का पुस्तक रूप में प्रकाशन भी एक महत्वपूर्ण कड़ी है। निस्सन्देह यह जैन इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में प्रथम शोधपरक कृति है। जैन परम्परा में इतिहास लेखन की परम्परा तो प्राचीन काल से रही है किन्तु उसमें श्रद्धा-बुद्धि के कारण अलौकिकताओं का भी प्रवेश हो गया है फिर भी प्रबन्धकोश आदि कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं जो जैन इतिहास-दर्शन की आधारशिला हैं। प्रबन्धकोश ने लगभग १०३० वर्षों की कालअवधि के इतिहास को अपने में समेटा है। परम्परा के इतिहास की दृष्टि से राजशेखर का यह प्रयास स्तुत्य है। उसने अपने प्रबन्धकोश में तिथियों और कालक्रम को इस प्रकार गुम्फित किया जिससे प्रतीत होता है कि राजशेखर को इतिहास की सच्ची पकड़ थी।
यह आवश्यक नहीं कि कोई कवि या इतिहासकार अपने जीवमकाल में ही व्यापक लोक-प्रख्याति प्राप्त कर ले। यद्यपि श्रीहर्ष जैसे कुछ महाकवि अवश्य हुए हैं जिन्होंने अपना सूक्ष्म चलता-सा
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