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ऐतिहासिक तथ्य और उनका मूल्यांकन
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निर्वाणकलिका, प्रश्नप्रकाश आदि शास्त्रों का सन्दर्भ दिया और 'तरंगलोला' नामक एक चम्पूकाव्य की रचना की । अन्त में उन्होंने एक गणिका को प्रभावित किया । तदनन्तर वे ३२ दिनों तक अनशन करते हुए देवलोकगामी हुए।
विद्याधर गच्छ में 'श्रुतसागर के पारगामी' पादलिप्त की जीवनकथा प्रभावकचरित, पुरातन प्रबन्ध संग्रह और प्रबन्धकोश में सविस्तर वर्णित है ।" प्रबन्धकोश का पादलिप्ताचार्य प्रबन्ध प्रभावकचरित के पादलिप्तसूरिचरितम् का प्रायः पदान्वय है और पुरातनप्रबन्धसंग्रह के अनुरूप है । पादलिप्त द्वितीय शताब्दी ई० के हैं जिन्होंने तरंगवती ( प्राकृत ), निर्वाणकलिका और ज्योतिषकरण्ड टीका रची है । इनका एक गृहस्थ शिष्य नागार्जुन था जो रसायनवेत्ता और मन्त्र - साधक था ।
पादलिप्त के समकालीन सूरियों में रुद्रदेव, समरसिंह, खपुटाचार्य ( प्रथम ई०), महेन्द्र, नागहस्ति ( ४६ - १६२ ई० ) और समकालीन नृपतियों में कोशल के विजय वर्मा (ब्रह्म), भड़ौच के बलमित्र ( ७८ ई०), ओमकारपुर के भीमराज, मानखेट के कृष्णराज, पाटलिपुत्र के मुरुण्ड और प्रतिष्ठान के सातवाहन ( पुलुमावि द्वितीय ८६ - ११४ ई० ) वगैरह थे | यदि इन समकालिकों पर विचार किया जाय तो पादलिप्त विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के आचार्य हैं, ऐसा मानना होगा । अत: पादलिप्त को द्वितीय शताब्दी ई० में मानना ही समीचीन है ।
ब्यूलर के अनुसार लाट मध्य गुजरात है । परन्तु अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार लाट दक्षिणी गुजरात है जिसमें सूरत, भड़ौच, खेड़ा और बड़ौदा के हिस्से सम्मिलित थे । महत्व की बात यह है कि पाटलिपुत्र से लाट प्रदेश जाना और वापस आना पादलिप्त के लिए कठिन नहीं था क्योंकि वे गगनगामिनी विद्या में निष्णात थे ।
१. " द्वात्रिंश छिनान्यनशनं कृत्वा देहं मुक्त्वा ।" पुप्रस, पृ० ९४ ।
२. प्रभाच, पृ० २८ - ४०, ६१ पुस, पृ० ९२-९५
जैसाबृइ, पृ० ३३५
३. डे, एन० एल० : ज्योग्रैफिकल डिक्शनरी, पृ० ११४, लॉ, हि० ज्यो',
पृ० ३३८: चागु, पृ० २०९ ।
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प्रको, पृ० ११-१४; दे०
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