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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
प्रस्तुत जैन-प्रबन्ध विशाल जैन-साहित्य का एक छोटा रूप है, जो गद्य और पद्य दोनों में तथा सरल संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और प्राचीन राजस्थानी में तेरहवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक लिखे गये । यद्यपि जैन-प्रबन्ध जैन-साहित्य का एक गत्यात्मक रूप रहा । है तथापि इसे किसी निश्चित परिभाषा में आबद्ध करना कठिन है क्योंकि जो विषय जितना महत्वपूर्ण, विकासशील और लचीला होता है उसको परिभाषाओं द्वारा सीमित करना बड़ा कठिन हो जाता है। फिर भी इसकी परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है कि जैन-प्रबन्ध छोटे-छोटे अध्यायों में विभक्त इतिहास की एक विधा है, जो गुजरात, मालवा या राजस्थान के जैन ग्रन्थकारों द्वारा तेरहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की गद्य-पद्य शैली में लिखे गये हैं जिनमें से अधिकांश ऐतिहासिक हैं।
उपर्युक्त परिभाषा का विश्लेषण करने से जैन-प्रबन्धों की कुछ विशेषताएँ स्पष्ट हो जाती हैं । यथा-( १ ) जैन-प्रबन्ध जैन-इतिहास का एक विशिष्ट रूप है । ( २ ) ये छोटे-छोटे अध्यायों में लिखे गये हैं । ( ३ ) इनकी रचना गद्य और पद्य दोनों में हुई है। ( ४ ) इनकी भाषा अधिकतर सरल संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और प्राचीन राजस्थानी है। (५) इनके रचयिता प्रायः जैन मतावलम्बी हैं। (६) इनकी रचना का समय तेरहवीं शताब्दी से शुरू होता है । (७) ये मूलतः गुजरात, मालवा और राजस्थान में लिखे गये तथा (८) इनमें से अधिकांश प्रबन्ध ऐतिहासिक हैं । इस दृष्टि से राजशेखर का प्रबन्धकोश केवल एक जैन-प्रबन्ध नहीं अपितु अनेक जैन-प्रबन्धों का एक संकलित ग्रन्थ है। ___ जैन-प्रबन्धों के रूपों द्वारा ही उनकी विषय-वस्तु निर्धारित की गई है । यदि वे गद्य-प्रधान हैं तो प्रायः ऐतिहासिक वृत्तों को या इतिहाससम्बन्धी सूचनाओं को अपना विषय बनाते हैं। यदि वे पद्य-प्रधान हैं तो ऐतिहासिक सामग्रियों के होते हुए भी वे इतिहास की अपेक्षा साहित्य के अधिक समीप आते हैं और अर्द्ध ऐतिहासिक कहे जा सकते हैं। जैन-प्रबन्धों में वर्णित चरित्र व घटनाएँ ऐतिहासिक हैं। जिन ऐतिहासिक चरित्रों का चयन किया गया है वे गुणवान और गुणहीन दोनों प्रकार के हैं। उपदेशात्मक उद्देश्य कदम-कदम पर दीख पड़ता
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