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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन
की प्राचीन प्रामाणिक परम्पराओं पर आधारित हैं और अतीत का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करते हैं ।
'प्रबन्ध' शब्द का प्रयोग बराबर बदलता रहा है । प्रबन्ध का मौलिक अर्थ ग्रन्थ-रचना है । यह संस्कृत के प्र + बन्ध से मिलकर बना है जिसका आशय है रचना करना । दूसरे शब्दों में परम्परानुमोदन के साथ किसी विषय का गद्य या पद्य में प्रस्तुतीकरण प्रबन्ध कहलाता है । परन्तु प्रबन्ध का रूढ़िवादी अर्थ महाकाव्यों से सम्पर्कित किया जाता रहा और उन्हें प्रबन्ध-काव्य पुकारा गया है । परवर्ती काल में, प्रतिष्ठित पुरुषों से सम्बन्धित ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित लघु-कथाओं को प्रबन्ध कहा गया । अतः एक अविरल और सुसम्बद्ध वृत्तान्त या व्याख्यान को प्रबन्ध कहा जाने लगा । किन्तु आज 'प्रबन्ध' शब्द न तो मौलिक अर्थ में और न रूढ़िवादी अर्थ में ही प्रयुक्त होता है, प्रत्युत् आज इसे शोध-ग्रन्थ के लिए इस्तेमाल किया जाता है ।
जैन ग्रन्थकारों ने 'प्रबन्ध' शब्द का विशिष्ट अर्थ में प्रयोग किया है। गुजरात और मालवा के वाङ्मय का एक विशिष्ट रूप जैन -प्रबन्ध है, जो विशेषतः जैन ग्रन्थकारों द्वारा रचा गया था । एक ऐतिहासिक वृत्तान्त को प्रबन्ध नाम दिया गया है जो प्रायः सरल संस्कृत या प्राकृत गद्य और कभी-कभी पद्य में लिखा गया है ।' हेमचन्द्र प्रथम विद्वान् था जिसने प्रबन्ध-काव्य से भिन्न साहित्य के एक स्वतन्त्र रूप प्रबन्ध के अस्तित्व को मान्यता दी । जिनभद्र की प्रबन्धावलि ( १२३४ ई० ) प्राचीनतम प्रबन्ध-ग्रन्थ है किन्तु इसमें जैन -प्रबन्ध को परिभाषित नहीं किया गया है । प्रभाचन्द्र ने इस सम्बन्ध में अपना विचार प्रकट किया है कि जैन - प्रबन्ध की विषय-वस्तु परम्परा से ग्रहण करनी चाहिये और इसमें मृदु चरित्रों एवं महान कार्यों का ही वर्णन करना चाहिये । '
यद्यपि मेरुतुङ्ग ने भी जैन- प्रबन्ध की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं की है तथापि प्रबन्धचिन्तामणि के मंगलाचरण से उसका प्रबन्ध से सम्बन्धित मन्तव्य प्रस्तुत किया जा सकता है । 'प्रबन्धचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ कई संग्रहों को मिलाकर गूँथा गया है । ये गद्यबद्ध प्रबन्ध
१. दे० लिसमव, पृ० १४४ ।
२. प्रभाव, पु० १ तथा दे० वही, प्रास्ता० वक्तव्य, जिनविजय, पू० ५।
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