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तुलनात्मक अध्ययन
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( बी प्रति ) के पादलिप्ताचार्य प्रबन्ध' और रत्नश्रावकप्रबन्ध राजशेखरसूरि के प्रबन्धकोश के हैं । अतएव ये प्रबन्ध उतने पुरातन नहीं हैं । प्रथम प्रबन्ध को तो पुरातनप्रबन्धसंग्रह में संकलित किया गया है किन्तु दूसरे प्रबन्ध के अन्त में उल्लेख है कि "रत्नश्रावकप्रबन्धो विसर्जिताः (तः ) श्रीराजशेखरसूरिभिर्मलधारिगच्छीयै विरचितः । " अतः प्रकाशित पुरातनप्रबन्धसंग्रह में पुनरावृत्ति बचाने के लिए रत्नश्रावकप्रबन्ध को स्थान नहीं दिया गया है ।
इन दोनों प्रबन्धों के अतिरिक्त पुरातनप्रबन्धसंग्रह के विक्रमादित्व और कुमारपाल के कुछ प्रकरण ऐसे हैं जिनका प्रबन्धकोश में आये तत्सम्बन्धी प्रकरणों से बहुत घनिष्ठ साम्य दिखाई देता है ।
वे प्रबन्धकोश और पुरातनप्रबन्धसंग्रह में शब्दों और तथ्यों दोनों प्रकार से प्राय: समान प्रतीत होते हैं किन्तु भिन्न-भिन्न रचयिताओं द्वारा लिखे गये हैं क्योंकि प्रबन्धकोश की अपेक्षा पुरातनप्रबन्धसंग्रह वाले प्रकरणों की रचना अपेक्षाकृत अधिक पुरातन है । इसके दो कारण हो सकते हैं । एक तो यह कि पुरातनप्रबन्धसंग्रह के इन दोनों प्रकरणों की भाषा अधिक लौकिक, परिष्कारविहीन और शिथिल है, जबकि प्रबन्धकोश में यही भाषा परिष्कृत और परिमार्जित रूप में है । दूसरे, राजशेखर अपने से पूर्व विद्यमान कृतियों में से ऐसे कई प्रकरण अक्षरशः अथवा तनिक परिवर्तन करके प्रबन्धकोश में उद्धृत और आत्मसात् कर लेता है । अतः सम्भावना यही है कि राजशेखर सूरि ने किंचित् भाषा-संस्कार करके इन दोनों प्रकरणों को प्रबन्धकोश में सन्निविष्ट कर लिया होगा ।
१. पुप्रस, पृ० ९२-९५ ।
२. पुप्रस, प्रा० वक्तव्य, पृ० ४ व पृ० ८ ।
३. जिनविजय ( सम्पा० ), पुप्रस, प्रास्ताविक वक्तव्य, पृ० ७ ।
४. कदाचित् राजशेखरसूरि के पहले किसी अन्य लेखक ने इन दोनों प्रकरणों को किसी प्रथमाभ्यासी विद्यार्थी के पठनार्थ बहुत सीधी-सादी भाषा में लिखा और तदनन्तर राजशेखरसूरि ने उक्त प्रकरणों में संशोधन - परिमार्जन किया हो ।
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