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________________ ऐतिहासिक तथ्य और उनका मूल्यांकन ( क्रमशः ) [ ८३ का मौन खलता है । संक्षेप में राजशेखर का यह प्रबन्ध असाम्प्रदायिक और राजवंशीय इतिहास की ओर एक नया कदम है। २१. मदनवर्स प्रबन्ध चौलुक्य वंश के मूलराज ( ९४१-९६ ई०), चामुण्डराज ( ९९७१००९ ई० ), दुर्लभराज ( १००९ - २४ ई० ) और भीम ( प्रथम, १०२४ - ६४ ई० ) के वंश में कर्णदेव ( १०६५-९३ ई० ) और मयणल्लादेवी का पुत्र जयसिंह सिद्धराज ( १०९४ - ११४२ ई० ) था जिसका विरुद् द्वादश रुद्र था । सिद्धराज मालवा की राजधानी धारा में १२ वर्षों से ससैन्य रहा । उसने मालवेन्द्र नरवर्मा ( १०९४ - ११३३ ई० ) को जीवित पकड़ कर काष्ठ - पिंजड़े में डाल दिया, क्योंकि नीति वचन के अनुसार राजा अवध्य होता है । तदनन्तर उसने दक्षिणापथ में महाराष्ट्र, तिलङ्ग, कर्णाट, पाण्ड्य आदि राष्ट्रों को जीता । परमार वंश के धूमकेतु सिद्धराज ने एक भद्रपुरुष से महोबक नगरी के परमार मदनवर्म ( ११२९-६३ ई० ) की राजसभा की प्रशंसा सुनी जिसे नल, पुरुरवा और वत्सराज के समान गुणसम्पन्न बताया गया था । भद्रपुरुष के वर्णन की पुष्टि करने के लिए सिद्धराज ने एक मन्त्री महोबक भेजा। लौटकर मन्त्री ने महोबक के वसन्त महोत्सव का वर्णन किया । मदनवर्म रमणियों में रमण करता हुआ इन्द्र के समान बतलाया गया । ऐसा सुनकर सिद्धराज विशाल सेना सहित महोबक की ओर बढ़ा । मदनवर्म ने सिद्धराज के लिए 'कबाड़ी' और 'वराक' जैसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया और सिद्धराज को सन्देश भिजवाया"यदि नगरी व भूमि लेना चाहता है, तो युद्ध करेंगे । यदि धन से सन्तुष्ट होता है तो धन ग्रहण करें।"" सिद्धराज की ९६ कोटि स्वर्ण खाद्यान्न आदि वस्तुओं के अभाव से उत्पन्न संकट, १९वीं शताब्दी के नेपोलियन महान् की महाद्वीपीय नीति का स्मरण कराते हैं । १. यदि नः पुरं भुव च जिघृक्षसि, तदा युद्धं करिष्यामः । अथार्थेन तृप्यति तदाऽर्थं गृहाणेति ॥ प्रको, पु० ९२ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002121
Book TitlePrabandh kosha ka Aetihasik Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravesh Bharadwaj
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1995
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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