________________
५६
जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
की एक प्रक्रिया है। यदि अष्टांगिक मार्ग तथा त्रिरत्न को एक ही साथ दृष्टि में लायेंगे तो देखेंगे कि सम्यक्-आजीव शील के अन्तर्गत आता है। इसी प्रकार सम्यक्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति तथा सम्यक्-समाधि समाधि के अन्तर्गत तथा सम्यक्-दृष्टि तथा सम्यक्संकल्प प्रज्ञा के अन्तर्गत आते हैं।१५७ कहीं शील, समाधि और प्रज्ञा को वीर्य, श्रद्धा एवं प्रज्ञा भी कहा गया है।१५८ साधक साधना का प्रारम्भ शील से करता है, समाधि से वह अपनी साधना का विकास करता है तथा प्रज्ञा से वह अपने दुःख-निरोध रूपी लक्ष्य को प्राप्त करता है। अत: कहा जा सकता है कि शील, समाधि और प्रज्ञा बुद्ध शासन का क्रमश: आदि, मध्य एवं अन्त है। तात्पर्य है भगवान् बुद्ध का धर्म आदि में कल्याणमय, मध्य में कल्याणमय तथा अन्त में भी कल्याणमय है।५९ पुग्गलपञति में दीपक का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि शील दीपक के प्रकाश की भाँति होता है। जिस प्रकार दीपक के प्रकाश से अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार कुशलशील से अकुशलशील नष्ट हो जाते हैं। समाधि नीवरणों को हटाकर क्लेशों को अभिभूत करती है और प्रज्ञा क्लेशों का समुच्छेद करती है।१६०
इस प्रकार बौद्ध धर्मान्तर्गत शील, समाधि और प्रज्ञा योग-साधना करनेवाले योगी के लिए तीन सरणी है जिसके द्वारा वह संसार के जाति, जरा-मरण रूपी दु:खों से मुक्त हो जाता है, क्योंकि शील और समाधि का फल है प्रज्ञा का उदय और जब तक प्रज्ञा का उदय नहीं होता तब तक अविद्या का नाश नहीं हो सकता। अत: साधक का प्रधान लक्ष्य इसी प्रज्ञा की उपलब्धि में होता है। शील
शील का अर्थ होता है- सदाचार। सामान्य रूप से शील उसे कहते हैं जिसके आधार पर मनुष्य में संयमरूप सद्गुण ठहरता है। शील की महत्ता इसी में है कि बिना उसके समाधि एवं प्रज्ञा का होना असंभव है। यदि कोई साधक बौद्ध धर्म में बतायी गयी विधि से चित की एकाग्रता को प्राप्त करना चाहता है तो उसके लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि वह शील सम्पन्न हो। विभिन्न पालि ग्रंथों में शील का वर्णन मिलता है। दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में तीन प्रकार के शील-आरम्भिक शील, मध्यम शील एवं महाशील का विस्तृत वर्णन मिलता है।१६१ जिनमें प्रमुख एवं उपयोगी शील दस६२ प्रकार के बताये गये हैं
१. प्राणातिपात विरति—सभी प्रकार की हिंसा से विरमण । २. अदत्तादान विरति-स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी वस्तु का अग्रहण।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org